केंद्र सरकार फंसी हुई है! जज के घर से मिले कैश पर धनखड़ का बयान… और बवाल
अरे भई, क्या बात है न? उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तो हाल ही में एक बम फोड़ दिया। जब किसी जज के घर से करोड़ों का कैश मिला, तो उन्होंने सीधे-सीधे कहा – “ये तो न्यायपालिका के लिए बड़ा झटका है।” लेकिन यहाँ मजे की बात ये है कि सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। 90s का एक पुराना फैसला आज भी सरकार को रोक रहा है। और देखिए न, ये सब ऐसे वक्त में हो रहा है जब पूरे देश में जजों की जवाबदेही को लेकर बहस चल रही है। क्या आपको नहीं लगता कि ये टाइमिंग बिल्कुल सही है?
90s का वो फैसला जो आज भी सरकार को लंगड़ा बना रहा है
ये पूरा मामला तब शुरू हुआ जब एक जज साहब के घर से… अरे यार, इतने सारे नोट! टीवी पर देखकर तो मेरा भी मुँह खुला का खुला रह गया। लेकिन असल मसला ये है कि 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था – कोई भी जज के खिलाफ कार्रवाई से पहले राष्ट्रपति की मंजूरी चाहिए। उस वक्त तो शायद ये न्यायपालिका की आजादी के लिए अच्छा था, लेकिन आज? सच कहूँ तो ये प्रावधान अब बोझ बन गया लगता है। क्या आपको नहीं लगता?
धनखड़ ने क्या कहा? और क्यों ये बयान अहम है
धनखड़ साहब ने तो साफ-साफ कह दिया – “सरकार बंधी हुई है।” एक तरफ तो ये सच है कि कानून उनके हाथ बांधता है, लेकिन दूसरी तरफ… अरे भाई, जब जनता का पैसा दांव पर लगा हो, तो क्या सिर्फ कानूनी पचड़ों में उलझकर बैठ जाना चाहिए? धनखड़ ने इसी बात को उठाया है। और सच मानिए, राजनीति के अखाड़े में तो ये बयान बम की तरह फटा है। विपक्ष तो पहले से ही सरकार को घेरने को तैयार बैठा था!
राजनीति का खेल: हर कोई अपनी रोटी सेक रहा है
देखिए न, यहाँ दोनों पक्ष अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। सरकार वालों का कहना है – “भई, कानून तो कानून है।” वहीं विपक्ष चिल्ला रहा है – “ये तो सफेदपोशों को बचाने की साजिश है!” कुछ एक्सपर्ट्स तो अब 1991 के फैसले पर फिर से विचार करने की बात कर रहे हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि ये मामला अब सिर्फ कैश तक नहीं रहा – ये तो न्यायपालिका और सरकार के बीच तनाव का मुद्दा बन चुका है।
अब आगे क्या? लंबी लड़ाई की तैयारी कर लीजिए
मेरे हिसाब से तो ये केस जल्दी खत्म होने वाला नहीं। सरकार शायद राष्ट्रपति से अनुमति मांगे, लेकिन ये प्रक्रिया… अरे भई, इसमें तो सालों लग सकते हैं! और इस बीच जनता का गुस्सा? वो तो बढ़ता ही जाएगा। सच कहूँ तो ये पूरा मामला एक बड़े सवाल की तरफ इशारा कर रहा है – क्या जजों को बिल्कुल भी जवाबदेह नहीं होना चाहिए? या फिर उनकी आजादी के नाम पर हम भ्रष्टाचार को नजरअंदाज करते रहें?
अंत में बस इतना कहूँगा – ये केस सिर्फ कुछ नोटों से कहीं बड़ा हो चुका है। ये तो अब एक सिस्टम बनाम जनता के विश्वास की लड़ाई बन गया है। और हाँ, अगले कुछ महीनों में तो ये मामला और भी गरमा सकता है। क्या आप तैयार हैं इस राजनीतिक-कानूनी ड्रामे के अगले एपिसोड के लिए?
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Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com