राज्यों की ज़िद और खुफिया एजेंसियों की मुश्किलें: क्या ISI मौके की ताक में है?
एक बेहद अहम मुद्दा जो शायद आपकी नज़र से छूट गया हो – हमारी खुफिया एजेंसियां आजकल राज्य सरकारों की रवैये से जूझ रही हैं। सच कहूं तो ये कोई नई बात नहीं, लेकिन पिछले कुछ महीनों में हालात बदतर हुए हैं। केंद्र सरकार चाहे जितना समझाए, कुछ राज्य सरकारें सुरक्षा मामलों में सहयोग देने से कतरा रही हैं। और यहां सवाल यह उठता है – क्या यह गैर-जिम्मेदाराना रवैया हमारे दुश्मनों के लिए एक सुनहरा मौका साबित होगा?
पूरा माजरा क्या है?
असल में देखा जाए तो ये टकराव राजनीतिक मतभेदों की वजह से है। पर सुरक्षा के मामले में तो… भई, ये सब ऊपर उठकर सोचना चाहिए न? आतंकवाद से लेकर साइबर जासूसी तक – इन सभी मामलों में राज्यों का सहयोग बेहद ज़रूरी है। बिना इसके तो हमारी एजेंसियां अधूरी जानकारी के साथ काम करने को मजबूर हैं। ठीक वैसे ही जैसे बिना ईंधन की गाड़ी चलाने की कोशिश करना!
हाल के घटनाक्रम
केंद्र ने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है – पत्र भेजे, बैठकें कीं। लेकिन कुछ राज्य सरकारें अभी भी ‘कल करें आज करें’ वाली रणनीति पर चल रही हैं। और सबसे हैरानी की बात? कुछ राज्यों ने तो खुफिया अधिकारियों को वर्क परमिट देने में ही ढिलाई बरती है। अब आप ही बताइए, ऐसे में ISI जैसी एजेंसियां क्या करेंगी? मौका मिलते ही छलांग लगाने को तैयार बैठी हैं!
कौन क्या कह रहा?
केंद्र का साफ़ स्टैंड है – “सुरक्षा सर्वोपरि”। लेकिन विपक्ष की आवाज़ अलग – “ये संविधान के अधिकारों का हनन है।” विशेषज्ञों की चिंता? वो तो समझ में आती है। उनका कहना है कि अगर ये टेंशन जारी रही, तो हम खुद ही अपनी सुरक्षा को कमजोर कर देंगे। और फिर… हमारे पड़ोसी तो बस इसी का इंतज़ार कर रहे हैं!
अब आगे क्या?
तो समाधान? सबसे पहले तो राज्यों और केंद्र को अपनी राजनीति एक तरफ रखनी होगी। शायद एक विशेष समिति बनाने की ज़रूरत है। नहीं सुनी तो… केंद्र को कड़े कदम उठाने पड़ सकते हैं। पर सच पूछो तो, सबसे ज़रूरी है कि हमारी एजेंसियों को राज्यों पर निर्भरता कम करनी होगी। थोड़ा और self-reliant बनना होगा।
आखिरी बात: ये कोई छोटी-मोटी बात नहीं है दोस्तों। अगर अभी नहीं संभले, तो बाद में पछताने से कुछ हासिल नहीं होगा। सुरक्षा के मामले में एकजुटता ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है – ये बात राज्य और केंद्र दोनों को समझनी चाहिए। वरना… खैर, आप समझदार हैं!
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देखिए, मामला यह है कि राज्य सरकारों की नीतियाँ और उनके बीच की अड़चनें हमारी खुफिया एजेंसियों के काम को लगातार पंगु बना रही हैं। और यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है – सीधे-सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मसला है। अब सवाल यह उठता है कि जब हमारी अपनी व्यवस्था में ही दिक्कतें हों, तो पाकिस्तान जैसे पड़ोसी क्यों नहीं इसका फायदा उठाएँगे? सच कहूँ तो यह स्थिति बिल्कुल वैसी ही है जैसे आप अपने घर का गेट खुला छोड़ दें और फिर चोर के आने पर हैरान हों।
हालांकि, इसमें अच्छी खबर यह है कि समाधान बहुत दूर नहीं है। बस ज़रूरत है केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर तालमेल की। एक स्पष्ट, समन्वित नीति। पर सवाल यह भी है – क्या हमारे नेता इतनी सीधी-सी बात समझने को तैयार हैं? क्योंकि जब तक यह सिलसिला चलता रहेगा, हमारी एजेंसियाँ अपना काम पूरी क्षमता से नहीं कर पाएँगी। और यह स्थिति… ठीक नहीं है। बिल्कुल नहीं।
असल में, बात सिर्फ policy की नहीं, execution की भी है। आप कितनी भी अच्छी योजना बना लें, अगर उसे लागू करने वालों में coordination न हो तो… खैर, आप समझ ही गए होंगे।
राज्यों की रुकावटें और खुफिया एजेंसियों की मुश्किलें – असली समस्या क्या है?
1. राज्यों की अड़चनें खुफिया एजेंसियों के लिए क्यों हैं सरदर्द बन रही हैं?
देखिए, मामला सीधा-साधा है। जब राज्य सरकारें data sharing में टाइम खराब करती हैं, coordination नहीं हो पाती, और legal hurdles आड़े आते हैं – तो क्या होगा? जाहिर है, हमारी एजेंसियों का काम पहाड़ जैसा मुश्किल हो जाता है। ऐसे में security threats को टाइम पर हैंडल करना तो दूर, पहचानना भी मुश्किल हो जाता है। सच कहूं तो यह स्थिति किसी भी देश के लिए चिंता की बात है।
2. क्या पाकिस्तान हमारी इस कमजोरी का फायदा उठा सकता है? सच्चाई जानकर चौंक जाएंगे!
अरे भाई, यह तो बिल्कुल वैसा ही सवाल है जैसे कोई पूछे कि क्या शेर मांस खाएगा! जाहिर है, पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हमारे internal challenges और coordination gaps को भुनाने से कब चूकते हैं? Cross-border terrorism हो या espionage activities – उनके लिए तो यह स्वर्णिम अवसर होता है। मजे की बात यह कि हम खुद ही उन्हें यह opportunity दे रहे हैं। डरावना है, लेकिन सच है।
3. केंद्र-राज्य की लड़ाई में फंसा सुरक्षा तंत्र – समाधान क्या हो सकता है?
इसे ऐसे समझिए – जब घर के लोग ही लड़ने लगें, तो चोर को काम करने में आसानी होती है न? तो फिर समाधान? सबसे पहले तो better coordination, वो भी real-time। फिर data sharing mechanisms को और मजबूत करना होगा। सबसे बड़ी बात – एक centralized intelligence framework की जरूरत है। हालांकि… यहां सबसे बड़ी चुनौती है political differences को side करना। National security को priority देना होगा, वरना… आप समझ गए न?
4. आम आदमी क्या कर सकता है? छोटी-छोटी सावधानियां, बड़े बदलाव!
सुनिए, देश की सुरक्षा सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। हम सबकी भी है। तो क्या करें? सबसे पहले तो suspicious activities को देखते ही report करें – बिल्कुल भी delay न करें। दूसरा, social media पर viral हो रही हर खबर पर यकीन न करें। Fake news और propaganda से बचें। Verified sources से ही जानकारी लें। थोड़ी सी awareness और vigilance… और हम सब मिलकर बड़ा बदलाव ला सकते हैं। आखिरकार, सुरक्षा हम सबकी साझा जिम्मेदारी है न?
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com