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“1963 में नेहरु ने अमेरिका को क्यों दे दिया उड़ीसा का चरबटिया एयरपोर्ट? निशिकांत दुबे का कांग्रेस पर बड़ा हमला!”

नेहरू ने 1963 में अमेरिका को चरबटिया एयरपोर्ट दिया था? या फिर कहानी कुछ और है? निशिकांत दुबे का कांग्रेस पर नया निशाना!

अभी-अभी BJP सांसद निशिकांत दुबे ने कांग्रेस और नेहरू जी पर एक ऐसा बयान दिया है जिसने राजनीति को गरमा दिया है। सवाल यह है कि क्या सच में 1963 में उड़ीसा (अब ओडिशा) का चरबटिया एयरपोर्ट अमेरिका को दे दिया गया था? या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडा है? देखिए, मामला जो भी हो, लेकिन दुबे जी के इस बयान ने तो एक बार फिर उस पुराने विवाद को जिंदा कर दिया है। और सच कहूं तो, आम लोगों को इस पूरे मामले के बारे में बहुत कम पता है।

चरबटिया एयरपोर्ट का सच – क्या था पूरा मामला?

असल में चरबटिया एयरपोर्ट की कहानी काफी दिलचस्प है। यह ओडिशा के गंजम में है, और हैरानी की बात यह कि इसे ब्रिटिशों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनवाया था। अब 1960s की बात करें तो… उस वक्त शीत युद्ध चरम पर था ना? और भारत-अमेरिका रिश्ते भी नए सिरे से बन रहे थे।

लेकिन यहां सवाल यह उठता है – क्या सच में नेहरू सरकार ने इसे CIA को दे दिया था? दुबे जी का तो यही दावा है। पर एक तरफ यह भी सच है कि उस वक्त के हालात अलग थे। चीन और पाकिस्तान से खतरा, अमेरिका का दबाव… ऐसे में शायद यह फैसला रणनीतिक था। या फिर…? ईमानदारी से कहूं तो, इतिहास के ये पन्ने बहुत जटिल हैं।

दुबे जी का बयान – सियासी तूफान या सच्चाई?

अब निशिकांत दुबे ने तो इस मामले को सोशल मीडिया पर जमकर उछाला है। उनका कहना है कि यह तो “देश की संप्रभुता बेचने” जैसा था। और सुनिए – उन्होंने यह भी कहा कि यह फैसला संसद से पूछे बिना लिया गया!

पर सवाल यह है कि क्या 1960s में आज जैसी पारदर्शिता की उम्मीद की जा सकती थी? मेरा मतलब… उस वक्त के हालात तो अलग ही थे ना? फिर भी, दुबे जी के इस बयान ने नेहरू जी की विदेश नीति पर फिर से बहस छेड़ दी है। और देखना यह है कि कांग्रेस इसका क्या जवाब देती है।

राजनीति गरमाई – क्या बोले दोनों दल?

अब तो मामला गरमा ही गया है। BJP वाले कह रहे हैं – “देखो कांग्रेस का असली चेहरा!” वहीं कांग्रेस वालों ने इसे “झूठा प्रोपेगैंडा” बताकर खारिज कर दिया है। एक कांग्रेस नेता तो यहां तक बोले – “BJP वाले इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं।”

देखा जाए तो… दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि अमेरिका के साथ सहयोग जरूरी था, लेकिन शर्तें साफ होनी चाहिए थीं। पर सवाल यह है कि क्या 60 साल पहले के फैसलों को आज के नजरिए से देखना सही है?

अब आगे क्या? 2024 चुनाव पर असर पड़ेगा?

अब तो लगता है यह मामला संसद तक जाएगा। और 2024 के चुनाव को देखते हुए… यह विवाद और बढ़ सकता है। दोनों पार्टियां अपनी-अपनी जमीन पर अड़ी हुई हैं।

पर सच्चाई यह है कि अभी तक कोई ठोस सबूत सामने नहीं आया है। क्या सरकार कोई जांच करेगी? या फिर यह सिर्फ एक सियासी हथकंडा बनकर रह जाएगा? वक्त ही बताएगा। लेकिन एक बात तो तय है – यह मामला अभी और सुर्खियां बटोरेगा!

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Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com

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