1962 की जंग: संसद में फिर से गरमा-गरम बहस, पर असल मुद्दा क्या है?
देखिए न, संसद में फिर से 1962 के भारत-चीन युद्ध पर बहस छिड़ गई है। और यार, कांग्रेस तो मानो पूरे मोड में आ गई है – सरकार पर आरोप लगा रही है कि वो ऐतिहासिक तथ्यों को छिपा रही है। सच कहूँ तो, ये बहस सिर्फ अतीत तक सीमित नहीं है। असल में, ये आज के सीमा विवादों पर भी एक तरह से राजनीतिक गोलाबारी है। सरकार ने जवाब में क्या किया? कांग्रेस की उस समय की नीतियों को ही हार की वजह बता दिया। मजेदार बात ये है कि दोनों पक्षों के तर्क सुनकर लगता है जैसे इतिहास की किताबें खुली पड़ी हों और हर कोई अपने हिसाब से पढ़ रहा हो!
वो दर्दनाक समय जिसे भूल पाना मुश्किल है
1962 का युद्ध… हमारे इतिहास का वो जख्म जो आज तक भरा नहीं। सैन्य हार तो हुई ही, कूटनीतिक स्तर पर भी भारी झटका लगा था। उस वक्त नेहरू जी प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस सरकार। पर सच पूछो तो, पिछले 60 सालों से ये बहस थमी नहीं – नेतृत्व की भूमिका हो या सैन्य तैयारियों की कमी। अब जाकर कुछ classified दस्तावेज सार्वजनिक हुए हैं, तो बहस फिर ताजा हो गई है। क्या आपको नहीं लगता कि इतिहास को समझने के लिए हमें और पारदर्शिता की जरूरत है?
संसद में तल्ख बहस – किसकी चली बात?
संसद में तो मानो तीर-कमान चल निकले! कांग्रेस का कहना है कि सरकार पूरी जिम्मेदारी उन पर थोप रही है, जबकि खुद आज की सरकार भी चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने में कामयाब नहीं हो पाई। सरकार की तरफ से जवाब? बिल्कुल सीधा – नेहरू सरकार की “forward policy” और कूटनीतिक नाकामयाबी को ही मुख्य वजह बताया। और तो और, रक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट में intelligence failure का भी जिक्र आया है। सच कहूँ तो, दोनों तरफ से इतने तथ्य आ रहे हैं कि सामान्य नागरिक के लिए सच्चाई समझ पाना मुश्किल हो रहा है।
राजनीति का पारा चढ़ा – किसने क्या कहा?
अब तो विभिन्न दलों के नेता भी मैदान में कूद पड़े हैं। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है – “सरकार इतिहास को मनमाने ढंग से पेश कर रही है। आज भी चीन अक्साई चिन पर कब्जा जमाए बैठा है!” भाजपा प्रवक्ता का जवाब? “1962 की हार तो कांग्रेस की नाकामयाबी थी। आज हमने गलवान में मजबूती दिखाई।” पर कुछ रक्षा विशेषज्ञों की बात सुनिए – “अतीत से सबक लेना चाहिए, न कि सिर्फ एक-दूसरे पर दोष मढ़ना चाहिए।” सचमुच, ये बहस अब इतिहास से ज्यादा वर्तमान राजनीति के बारे में लगती है।
आगे क्या? ये बहस थमेगी या और बढ़ेगी?
लगता नहीं कि ये मामला जल्दी शांत होने वाला है। रक्षा समिति की आगामी बैठकों में और चर्चा होगी। सूत्रों की मानें तो सरकार और दस्तावेज जारी करने पर विचार कर रही है। विपक्ष के लिए तो ये सुनहरा मौका है – वर्तमान सीमा विवाद को ऐतिहासिक बहस से जोड़कर सरकार पर दबाव बनाने का। एक बात तो साफ है – 1962 का युद्ध सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि आज की राजनीति का जीवंत मुद्दा बना हुआ है। और दोनों पक्ष इसे अपने-अपने तरीके से भुनाने में लगे हैं। आखिरकार, राजनीति है न!
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Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com