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“वाह रे सिस्टम! नेता की गाड़ी को पुल पार, लेकिन मां के शव को वाहन नहीं – बेटे को 1 किमी पैदल चलना पड़ा!”

वाह रे सिस्टम! नेता की गाड़ी को तो पुल पार, पर मां के शव के लिए कोई रहम नहीं?

कभी-कभी ऐसी खबरें सुनकर लगता है कि हमारा सिस्टम सच में बीमार हो चुका है। हमीरपुर की यह घटना सुनकर मन बैठ गया – एक तरफ तो नेता का काफिला आराम से पुल पार कर जाता है, और दूसरी तरफ एक मां का शव ले जा रहे बेटों को 1 किमी पैदल चलना पड़ता है! सच कहूं तो, ये वो किस्से हैं जो रोंगटे खड़े कर देते हैं।

अब सोचिए, जिस वक्त परिवार को सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत थी, सिस्टम ने उन्हें ठोकर मार दी। और वो भी तब, जब वे अपनी मां को अंतिम विदाई देने जा रहे थे। क्या यही है हमारी सरकारी मशीनरी? एकदम बेरहम।

कहानी उस पुल की, जहां नियम सिर्फ गरीबों के लिए होते हैं

मामला यमुना पुल का है जो मरम्मत के कारण बंद था। ठीक है, नियम तो नियम होते हैं। लेकिन यहां तो नियमों में भी ‘VIP’ और ‘गरीब’ का फर्क साफ दिखा। एक परिवार जब अपनी मां का शव ले जा रहा था, तो उन्हें रोक दिया गया। पर उसी पुल से कुछ देर पहले किसी नेता का वाहन सायरन बजाता निकल गया!

असल में बात ये है कि हमारे यहां दो तरह के नियम हैं – एक आम आदमी के लिए, और दूसरा ‘खास’ लोगों के लिए। और ये खेल तो हर दिन, हर शहर में हो रहा है। बस, आज किसी ने इसकी तस्वीर खींच ली।

वो दर्दनाक दृश्य: जब बेटों ने कंधे पर उठाई मां की लाश

कल्पना कीजिए उस परिवार की मनोदशा की – मां को खोने का गम और ऊपर से ये सिस्टम का क्रूर सच! उन्होंने अधिकारियों से गुहार लगाई, रोया-धोया, पर जवाब मिला – “नियम है सर!”

और फिर? फिर वो दृश्य जो social media पर आग की तरह फैला – दो बेटे अपनी मां का शव कंधे पर उठाए पैदल चल रहे हैं। 1 किलोमीटर का सफर! ये तस्वीर देखकर तो मन में सवाल उठता ही है – क्या यही है हमारा ‘डिजिटल इंडिया’? जहां नेता तो फर्राटे से निकल जाएं, पर मरने वालों के परिवार को ऐसी यातना झेलनी पड़े?

जब जनता का गुस्सा फूटा: “हम भी तो इंसान हैं!”

इस घटना ने लोगों को इतना भड़काया कि social media पर तूफान आ गया। लोग पूछ रहे हैं – “क्या शव को भी VIP पास चाहिए?” मृतक के परिवार का दर्द सुनकर तो लगता है कि हम अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर नहीं आए।

प्रशासन वाली रट लगा रहे हैं – “जांच होगी”। अरे भई, जांच किस बात की? क्या दिखाई नहीं दे रहा? असल में समस्या ये है कि हमारे यहां rules बनाने वाले और rules तोड़ने वाले एक ही लोग हैं।

क्या कुछ बदलेगा? या फिर यूं ही चलता रहेगा?

अब सवाल ये है कि क्या इस घटना से कुछ सबक लिया जाएगा? मेरा मानना तो ये है कि जब तक हम खुद इस तरह के व्यवहार को चुनौती नहीं देंगे, कुछ नहीं बदलेगा। Social media पर तो हर दिन नए हैशटैग चलते हैं, पर जमीनी हकीकत वही की वही।

एक बात तो तय है – अगर शव वाहन और ambulance को प्राथमिकता नहीं मिलेगी, तो फिर हम किस ‘विकास’ की बात कर रहे हैं? ये तो बुनियादी इंसानियत का सवाल है।

आखिर में बस इतना कहूंगा – जिस देश में मरने वालों के साथ भी भेदभाव हो, वहां ‘सुपरपावर’ बनने के सपने देखना भी बेमानी है। क्या पता, कल हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो जाए? सोचकर ही डर लगता है।

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Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com

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