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सरकारें सुन क्यों नहीं रहीं? मदद की पुकार अनसुनी क्यों?

सरकारें हमारी बात सुनना क्यों भूल गईं? मदद की गुहार अनसुनी क्यों?

परिचय

आजकल एक अजीब सा ट्रेंड चल रहा है – जनता चिल्ला-चिल्ला कर अपनी परेशानियां बता रही है, लेकिन सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। सेविले में होने वाले विकास वित्त सम्मेलन (Development Finance Conference) की बात करें तो, क्या वाकई इससे कुछ बदलने वाला है? आज हम बात करेंगे कि आखिर सरकारें हमारी आवाज़ अनसुनी क्यों कर देती हैं, और इसका हल क्या हो सकता है।

1. समस्या की जड़: जब सरकारें ‘ऑफलाइन’ हो जाती हैं

1.1 राजनीति ही राजनीति

सच तो ये है कि ज्यादातर सरकारों को चुनाव जीतने की पड़ी होती है। जनता की जरूरतें? वो तो बाद में देखी जाएंगी। पार्टी के एजेंडे और वोट बैंक की राजनीति हमेशा पहले आती है।

1.2 फाइलों का जंगल

नौकरशाही का तो पूरा सिस्टम ही ऐसा बना दिया गया है कि आपका आवेदन कहीं फाइलों के ढेर में दबकर रह जाए। सरकारी दफ्तरों में काम की स्पीड ऐसी कि लगता है समय पीछे की ओर बह रहा हो!

1.3 पैसा है… पर कहाँ?

बजट तो बड़े-बड़े आंकड़ों में बनता है, लेकिन जमीन पर पैसा पहुंचते-पहुंचते या तो गायब हो जाता है, या फिर गलत जगह लग जाता है। Experts का कहना है कि भ्रष्टाचार इसकी सबसे बड़ी वजह है।

2. सेविले सम्मेलन: क्या इस बार कुछ अलग होगा?

2.1 एजेंडा क्या है?

इस सम्मेलन में दुनिया भर के नेता गरीबी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों पर बात करेंगे। लक्ष्य है कि विकास के लिए पैसा जुटाया जाए। लेकिन असल सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक और ‘टॉक शॉप’ तो नहीं?

2.2 वादों और हकीकत का फर्क

पिछले कई सम्मेलनों में तो बस बड़े-बड़े वादे हुए थे। जमीन पर काम कितना हुआ? शायद ही कोई बता पाए। इस बार भी कुछ ऐसा ही होने का डर है।

2.3 सरकारों का रवैया

बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकारें इस बार गंभीर होंगी? विकासशील देशों की मांगों को लेकर क्या कोई कॉन्क्रीट एक्शन होगा, या फिर सब कागजों तक ही सीमित रहेगा?

3. अनसुनी आवाज़ के नतीजे

3.1 जनता का गुस्सा

जब सिस्टम काम नहीं करता, तो लोग सड़कों पर उतर आते हैं। पिछले कुछ सालों में प्रोटेस्ट और आंदोलनों में खासा इजाफा हुआ है। ये खतरनाक संकेत है।

3.2 अर्थव्यवस्था को झटका

जब प्रोजेक्ट्स पूरे नहीं होते, तो इसका सीधा असर इकोनॉमी पर पड़ता है। Investors का भरोसा टूटता है, और देश का विकास रुक जाता है।

3.3 लोकतंत्र खतरे में

जब जनता को लगने लगे कि उसकी आवाज़ का कोई मतलब नहीं, तो लोकतंत्र का मतलब ही खत्म हो जाता है। ये स्थिति किसी भी देश के लिए अच्छी नहीं है।

4. हल: अब क्या किया जाए?

4.1 जनता को जागना होगा

सोशल मीडिया एक ताकतवर हथियार है। हमें अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी। स्थानीय स्तर पर awareness campaigns चलाने होंगे।

4.2 सरकार पर प्रेशर

मीडिया और NGOs को और सक्रिय होना पड़ेगा। कानूनी रास्ते अपनाकर, PILs दाखिल करके सरकार को जवाबदेह बनाना होगा।

4.3 वैश्विक सहयोग

अंतरराष्ट्रीय संगठनों को भी सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए। विकासशील देशों के लिए बेहतर funding और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की जरूरत है।

निष्कर्ष

हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन हार मानने का वक्त अभी नहीं आया। हमें मिलकर काम करना होगा – जनता, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक साथ आना होगा। तभी हम सरकारों को उनकी जिम्मेदारी याद दिला पाएंगे। याद रखिए, लोकतंत्र में आखिरी फैसला जनता का ही होता है!

Source: Financial Times – Global Economy | Secondary News Source: Pulsivic.com

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