धरती थम गई, पर ज़ख्म अभी ताज़ा हैं
कभी-कभी प्रकृति हमें याद दिला देती है कि हम कितने नाज़ुक हैं। [स्थान/क्षेत्र] में [तारीख] को आया वो भूकंप… अरे भाई, क्या बताऊँ – पल भर में सैकड़ों घरों की कहानियाँ मिट्टी में मिल गईं। Richer scale पर [माप] की तीव्रता? सुनकर ही रूह काँप जाती है। और सबसे डरावना? ये झटके [संख्या] जिलों तक महसूस किए गए। ईमानदारी से कहूँ तो आँकड़े डरावने हैं – [संख्या] लोगों की जान चली गई, [संख्या] से ज़्यादा घायल। पर असली दर्द तो उन परिवारों का है जिनके सपने अभी भी मलबे में दबे पड़े हैं।
मगर सच तो ये है कि ये कोई ‘अचानक’ आई आफ़त नहीं थी। इस इलाके को तो भूकंपीय ज़ोन में गिना जाता है – यानी खतरा हमेशा मँडराता रहता है। [वर्ष] का भूकंप भूल गए क्या? वो भी ऐसी ही तबाही लाया था। पर लगता है हम ‘इतिहास से सबक लेना’ वाली बातें सिर्फ़ किताबों में ही पढ़ते हैं। सरकार ने इसे high-risk zone घोषित किया था, विशेषज्ञ चेतावनी देते रहे… फिर भी? तैयारी का स्तर देखकर लगता है जैसे हम सब ‘चलता है’ वाली मानसिकता में जी रहे हैं।
अभी NDRF और स्थानीय टीमें जान लड़ाकर काम कर रही हैं, पर मुश्किलें कम नहीं। [संख्या] इमारतें ढह चुकी हैं – और हैरानी की बात ये कि इनमें स्कूल, अस्पताल जैसी ज़रूरी जगहें भी शामिल हैं। बिजली-पानी तो छोड़िए, communication लाइनें भी कटी पड़ी हैं। ऐसे में मदद पहुँचाना वाकई चुनौतीपूर्ण हो गया है।
लोगों की प्रतिक्रियाएँ सुनकर दिल दहल जाता है। एक बुजुर्ग ने कहा – “बेटा, सब कुछ खत्म… बस ये ज़िंदगी बची है।” वहीं प्रशासन का कहना है कि “हम कोशिश तो पूरी कर रहे हैं, पर संसाधन…”। विशेषज्ञों की राय? साफ़-साफ़ कह रहे हैं – “earthquake-resistant construction न होने ने नुकसान को बढ़ा दिया।” सच कहूँ तो ये सुनकर गुस्सा आता है – इतनी साधारण सी बात पर अमल क्यों नहीं होता?
अब सवाल ये कि आगे का रास्ता क्या है? सरकार ने तुरंत राहत राशि का ऐलान कर दिया है (जैसा कि हर बार होता है)। पर असली मुश्किल तो अब शुरू होगी – पुनर्वास का लंबा सफर। और डरावना? भूवैज्ञानिक और झटकों की चेतावनी दे रहे हैं। लोगों की आँखों में वही सवाल – कब तक ऐसे ही मलबे में जीते रहेंगे?
आखिर में एक सवाल जो मन को कचोटता है – क्या अगली बार हम बेहतर तैयार होंगे? या फिर ‘जब आएगा तब देखेंगे’ वाली रवैया हमें बार-बार ऐसे ही आँसू बहाने पर मजबूर करेगा?
“धरती थम गई है, पर जिंदगियाँ अब भी संभल नहीं पाईं” – क्या आपने कभी इसकी गहराई को महसूस किया है?
1. यह लाइन कब और क्यों बोली जाती है?
देखिए, ये वो लाइन है जो आपको किसी बड़ी त्रासदी के बाद सुनने को मिलेगी – चाहे वो natural disaster हो, कोई बड़ा हादसा हो या फिर war जैसी स्थिति। असल में, इसका मतलब समझना बहुत दिलचस्प है। धरती तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है, time बीत जाता है… पर क्या जिनकी जिंदगियाँ उलट-पुलट गई हैं, वो इतनी जल्दी संभल पाते हैं? शायद नहीं।
2. ये quote हमारे दिलों को क्यों छू जाता है?
ईमानदारी से कहूँ तो, ये सिर्फ words नहीं हैं – ये एक पूरी feeling है। सोचिए न, इमारतें तो दोबारा बन जाती हैं, सड़कें repair हो जाती हैं… पर जो emotional wounds होते हैं न, वो किताबों के पन्नों की तरह धीरे-धीरे ही पलटते हैं। कभी-कभी तो पूरी जिंदगी भर। है न गहरी बात?
3. क्या हमारे इतिहास में ऐसे examples मिलते हैं?
अरे भई, कितने ही! 2001 का Gujarat earthquake याद है? या फिर COVID-19 का वो दौर जब पूरी दुनिया थम सी गई थी? ऐसी हर tragedy के बाद लोगों ने ठीक यही feel किया है। मजे की बात ये है कि अलग-अलग cultures में भी इसी तरह के quotes मिल जाएंगे। मानवीय पीड़ा तो universal है न!
4. ऐसे हालात में हम क्या कर सकते हैं? सच्ची मदद कैसे हो?
तो सुनिए, donate करना अच्छी बात है, volunteer work भी बढ़िया है… पर क्या आप जानते हैं कि सबसे बड़ी help क्या होती है? वक्त देना। सुनना। समझना। जिन्होंने trauma झेला है, उनके लिए mental health support तो बहुत जरूरी है ही, पर कभी-कभी एक साधारण सा “तुम अकेले नहीं हो” भी कितना कुछ बदल देता है। सोचिएगा जरूर।
Source: Times of India – Main | Secondary News Source: Pulsivic.com