यूरोपीय संघ और जर्मनी ने WTO को लेकर बड़ा कदम उठाया – क्या यह गेम-चेंजर साबित होगा?
अब तक तो आपने भी नोटिस किया होगा – World Trade Organization (WTO) पिछले कुछ सालों से जैसे लंगड़ा रहा है। और अब EU और जर्मनी ने इसे ठीक करने की जिम्मेदारी खुद ले ली है। सवाल यह है कि क्या वे अमेरिका के विरोध के बावजूद WTO को फिर से ट्रैक पर ला पाएंगे? Brussels और Berlin की यह चाल वैश्विक व्यापार के लिए कितनी कारगर साबित होगी, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन एक बात तय है – अगर यह कामयाब रही, तो यह सिर्फ एक सुधार नहीं, बल्कि एक बड़ा बदलाव होगा।
WTO का संकट: जानिए पूरी कहानी
देखिए, मामला कुछ ऐसा है – WTO का Appellate Body पिछले तीन साल से बिना जजों के काम कर रहा है। है न मजेदार बात? अमेरिका ने नए मेंबर्स की नियुक्ति पर ही रोक लगा दी। ऐसे में विवादों का निपटारा कैसे हो? यूरोप वालों को यह बात बहुत चुभ रही है, क्योंकि उनका मानना है कि बिना WTO के global trade का पूरा सिस्टम ही धराशायी हो जाएगा। और सच कहूं तो, उनकी इस बात में दम भी है।
क्या है EU और जर्मनी का प्लान?
तो ये लोग क्या चाहते हैं? असल में तीन बड़ी बातें:
1. WTO के फैसले लेने की प्रक्रिया को सरल बनाना (जो अभी तो किसी सरकारी दफ्तर जैसी है!)
2. सदस्य देशों के बीच सहमति बनाने के नए तरीके
3. संगठन को ज्यादा flexible बनाना
लेकिन यहां मजा खराब करने वाला कौन है? अमेरिका तो है ही, साथ ही चीन और भारत जैसे देश भी चुप्पी साधे बैठे हैं। और जब तक ये बड़े खिलाड़ी साथ नहीं देंगे, तब तक कुछ होने वाला नहीं।
क्या कह रही है दुनिया?
यूरोपीय आयोग तो बिल्कुल clear है – “WTO को अभी बचाना होगा, नहीं तो बड़ा नुकसान होगा।” जर्मन अधिकारी तो और भी सीधे हैं – उनका कहना है कि “WTO फेल हुआ तो global economy को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।” पर सच तो यह है कि बिना अमेरिका के यह सब कुछ बेकार है। और ट्रंप के जमाने से ही अमेरिका WTO को लेकर उदासीन है।
आगे क्या होगा?
अगले कुछ महीनों में WTO की मीटिंग्स में यह मुद्दा गरमा सकता है। पर मेरी निजी राय? अगर अमेरिका नहीं मानेगा, तो सब बेकार। कुछ एक्सपर्ट्स कह रहे हैं कि Plurilateral Agreements का रास्ता अपनाया जा सकता है। मतलब, जो देश चाहें, वे आपस में अलग से डील कर लें। भारत जैसे देशों के लिए यह बहुत बड़ा मसला है – क्योंकि WTO में होने वाले बदलाव हमारे exports-imports पर सीधा असर डालेंगे।
तो कुल मिलाकर? यह या तो WTO के लिए नई जान साबित होगा, या फिर दुनिया को trade के नए रास्ते तलाशने पर मजबूर कर देगा। और हमारे जैसे देशों को तो खासकर सतर्क रहने की जरूरत है – क्योंकि इन बदलावों में हमारे हित भी दांव पर लगे हैं।
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1. WTO में यूरोपीय संघ और जर्मनी की क्या चाहत है?
देखिए, मामला कुछ यूं है – यूरोपीय संघ और जर्मनी WTO के पुराने ढर्रे को बदलना चाहते हैं। खासकर trade disputes, subsidies और digital trade के मामलों में। उनका तर्क है कि current system तो जैसे पुराने जमाने का फोन हो गया है – आज के digital युग में चलने लायक नहीं रहा। पर सवाल यह है कि क्या बाकी देश भी इस बदलाव के लिए तैयार हैं?
2. भारत का इस पूरे मामले में क्या स्टैंड है?
असल में बात ये है कि भारत भी reforms चाहता है, मगर अपने तरीके से। हमारी सरकार developing countries के हितों की बात करती है – खासकर agricultural subsidies और food security के मुद्दे पर। एक तरफ तो विकास जरूरी है, लेकिन दूसरी तरफ किसानों की रोटी से समझौता नहीं हो सकता। समझ रहे हैं न?
3. अगर WTO में बदलाव हुए तो क्या होगा?
ईमानदारी से कहूं तो दोनों तरह के नतीजे हो सकते हैं। अच्छा हुआ तो global trade और भी आसान हो जाएगा – जैसे ट्रैफिक सिग्नल सही से काम करने लगें। लेकिन अगर developed और developing countries में सहमति नहीं बनी तो? फिर तो trade wars का खतरा भी है। और ये कोई छोटी-मोटी बात नहीं!
4. क्या ये सब हमारे रोजमर्रा की जिंदगी को छुएगा?
बिल्कुल! आपके mobile से लेकर kitchen तक पर असर पड़ सकता है। नए rules से imports-exports पर असर होगा – कुछ चीजें सस्ती हो सकती हैं, तो कुछ के दाम आसमान छूने लगेंगे। और digital trade की नई policies? उनका तो सीधा असर हमारे online shopping और digital payments पर पड़ेगा। सोचिए, अगर Amazon या Flipkart के rules बदल गए तो? एकदम गेम-चेंजर!
फिलहाल तो ये सब चर्चा का विषय है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं – अंतरराष्ट्रीय मामलों में कुछ भी तय नहीं होता। बस इंतज़ार कीजिए और देखिए क्या होता है!
Source: DW News | Secondary News Source: Pulsivic.com