“उस दिन मन नहीं था…” – क्या ये सच में रेप का केस था या फिर एक झूठा आरोप?
पुणे का ये मामला सुनकर मन में एक सवाल उठता है – क्या हमारी न्याय प्रणाली और समाज इतना भरोसा करने लायक है? एक 22 साल की आईटी professional लड़की ने अपने ही बॉयफ्रेंड पर रेप का झूठा केस दर्ज कराया। और सबसे हैरानी की बात? उसने खुद अपनी सेल्फी ली और बॉयफ्रेंड के नाम से धमकी भरे messages टाइप किए। सच कहूं तो, ये सिर्फ एक इंसान की बदनामी की कहानी नहीं है, बल्कि ऐसे झूठे मामलों से असली पीड़ितों पर क्या असर पड़ता है, ये सोचने वाली बात है।
कहानी शुरू होती है… जब ‘ना’ का मतलब ‘हां’ नहीं होता
सब कुछ तब शुरू हुआ जब लड़की ने पुलिस में शिकायत की कि उसके बॉयफ्रेंड ने जबरदस्ती की थी। उसका दावा था – “उस दिन मन नहीं था”। लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि क्या सच में मन नहीं था या फिर कुछ और चल रहा था? पुलिस ने तो जांच शुरू कर दी, पर जैसे-जैसे digital evidence सामने आने लगे, कहानी का पूरा प्लॉट ही बदल गया। है न मजेदार?
जब मोबाइल ने खोल दी पोल!
असल में तो पुलिस को मिले सबूतों ने पूरा केस ही पलट दिया। लड़की के फोन से मिली सेल्फी और खुद टाइप किए गए messages… ये सब देखकर तो मैं भी सोच में पड़ गया। सोशल मीडिया chats और call records ने तो साफ कर दिया कि यहां रिश्ते में तनाव था, बस। बॉयफ्रेंड का कहना था कि लड़की उसे सिर्फ इसलिए फंसाना चाहती थी क्योंकि वह रिश्ता तोड़ना चाहता था। Technical evidence ने सच्चाई सामने ला दी। एकदम ज़बरदस्त।
अब क्या? सुनिए सबकी अपनी-अपनी कहानी
पुलिस वालों ने तो साफ कह दिया – “मैडम ने झूठे सबूत बनाए थे, अब उनके खिलाफ केस चलेगा।” वहीं बॉयफ्रेंड, जो अब आरोपों से मुक्त हो चुका है, कह रहा है – “मेरी तो professional life ही खत्म हो गई थी।” Social activists की बात सुनें तो वो चिंता जता रहे हैं कि ऐसे झूठे केस असली पीड़ितों के लिए मुश्किलें बढ़ा देते हैं। सच कहूं तो, दोनों तरफ के लोगों की बात में दम लगता है।
आगे क्या होगा? और क्यों ये केस इतना अहम है?
अब लड़की के खिलाफ झूठी FIR और evidence में हेराफेरी का केस चलेगा। पर सवाल ये है कि क्या इससे भविष्य में झूठे केस कम होंगे? Legal experts कह रहे हैं कि पुलिस को technical evidence पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। मेरा मानना है कि ये केस एक wake-up call की तरह है – न सिर्फ पुलिस के लिए, बल्कि हम सभी के लिए।
अंत में एक बड़ा सवाल – कैसे बनाएं संतुलन? एक तरफ असली पीड़ितों को न्याय मिले, दूसरी तरफ बेकसूर लोग झूठे आरोपों से बचें। ये केस तो सिर्फ शुरुआत है… आने वाले समय में न्याय प्रणाली को और भी ऐसे मामलों का सामना करना पड़ेगा। क्या हम तैयार हैं? आपकी क्या राय है?
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इस घटना ने तो एक बार फिर वही साबित कर दिया जिससे हम सब वाकिफ हैं – झूठे रेप के आरोप सिर्फ एक इंसान की ज़िंदगी तबाह नहीं करते, बल्कि असली पीड़ित महिलाओं की आवाज़ को भी कमज़ोर कर देते हैं। सच्चाई सामने आने के बाद सवाल तो उठना ही था: क्या ऐसे मामलों में हमें और सख्त नहीं होना चाहिए?
देखिए, एक तरफ तो न्याय की मांग पूरी तरह जायज़ है – यह उतना ही ज़रूरी है जितना कि सांस लेना। लेकिन दूसरी तरफ… अरे भाई, बिना किसी पुख्ता सबूत के किसी पर आरोप लगा देना? यह तो बिल्कुल वैसा ही है जैसे बिना चेक किए ही किसी को गुनहगार ठहरा देना।
और सच कहूं तो, यह पूरा मामला दिमाग़ पर बहुत बोझ डाल देता है। क्योंकि जब ऐसे फर्जी केस सामने आते हैं, तो असली पीड़िताओं के लिए न्याय पाना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या आपने कभी इस बारे में सोचा है?
वैसे अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का हल क्या हो सकता है? शायद… शायद हमें एक बैलेंस्ड अप्रोच की ज़रूरत है। जहां निर्दोषों को सुरक्षा मिले, वहीं असली पीड़ितों को भी न्याय। लेकिन यह आसान नहीं है, है ना?
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com