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कानून में लैंगिक अंतर बढ़ने का खतरा: विविधता पर पलटवार चिंताजनक!

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कानून की दुनिया में लैंगिक अंतर: बढ़ती चिंता, गिरती विविधता!

एक चिंताजनक सच्चाई

देखा जाए तो कानून के क्षेत्र में लैंगिक विविधता पर बहुत बातें होती हैं, लेकिन असलियत कुछ और ही कहानी बयां करती है। आज भी जब हम law firms या courts में senior positions की बात करते हैं, तो महिलाओं की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही मिलती है। सच तो ये है कि law colleges से निकलने वाली 40-45% women students में से बहुत कम ही top positions तक पहुँच पाती हैं।

आँकड़े क्या कहते हैं?

न्यायपालिका की हकीकत

चौंकाने वाली बात ये है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 11% महिला judges हैं। हाई कोर्ट्स की हालत और भी खराब – महज 12%! वहीं अगर top law firms की बात करें तो partners में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से ज्यादा नहीं। लेकिन हैरानी की बात ये है कि junior levels पर ये आँकड़ा 35% तक पहुँच जाता है। तो सवाल ये उठता है – आखिर ये gap बीच में कहाँ पैदा हो जाता है?

ऐतिहासिक नजरिए से

थोड़ा पीछे चलते हैं। 1921 में Cornelia Sorabji ने जब पहली बार प्रैक्टिस शुरू की थी, तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि 100 साल बाद भी स्थिति इतनी धीमी गति से सुधरेगी। 1959 में Anna Chandy के first woman judge बनने के बाद से progress तो हुआ है, लेकिन senior positions में ये बदलाव कछुआ चाल से आगे बढ़ रहा है।

मुख्य समस्याएँ क्या हैं?

सिस्टम की खामियाँ

समाज की सोच

आज भी कई लोगों को लगता है कि महिलाएँ ‘too aggressive’ हो जाती हैं या फिर ‘not assertive enough’। ये stereotypes glass ceiling effect को और मजबूत करते हैं। असल में problem ये नहीं कि महिलाएँ capable नहीं हैं, बल्कि ये कि उन्हें बार-बार अपनी capability prove करनी पड़ती है।

खुद महिलाओं की चुनौतियाँ

इसका क्या असर हो रहा है?

न्याय प्रणाली पर प्रभाव

जब benches पर gender diversity नहीं होगी, तो judgments में भी balanced perspective की कमी होगी। खासकर domestic violence या sexual harassment जैसे cases में महिला judges का न होना एक बड़ी कमी है।

युवा पीढ़ी पर असर

जब young law students को senior positions में महिलाएँ नहीं दिखतीं, तो उन्हें लगने लगता है कि ये field उनके लिए नहीं है। ये एक तरह का demotivating factor बन जाता है।

हल क्या हो सकता है?

संस्थान क्या कर सकते हैं?

समाज की भूमिका

Media को successful women lawyers की stories को highlight करना चाहिए। साथ ही law colleges में gender sensitivity workshops अनिवार्य करने चाहिए।

महिलाएँ खुद क्या कर सकती हैं?

आखिरी बात

ये सिर्फ equality की लड़ाई नहीं, बल्कि हमारी judicial system को बेहतर बनाने का सवाल है। छोटे-छोटे steps से ही बड़ा बदलाव आएगा। हम सबको मिलकर इस दिशा में काम करना होगा।

कुछ जरूरी सवाल-जवाब

1. क्या वाकई में legal field में महिलाओं के लिए मौके कम हैं?

Entry level पर opportunities तो हैं, लेकिन senior roles तक पहुँचने में systemic barriers आड़े आते हैं। Mentorship और sponsorship programs इस gap को कम कर सकते हैं।

2. क्या work-life balance वाकई में इतनी बड़ी समस्या है?

बिल्कुल! Long hours और unpredictable schedules के चलते many women mid-career में ही drop out कर लेती हैं। Flexible policies ही इसका समाधान हो सकती हैं।

3. क्या महिला judges का होना जरूरी है?

जरूर! Diverse perspectives से judgments और balanced होते हैं। खासकर gender-sensitive cases में तो ये और भी जरूरी हो जाता है।

4. सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

Proving yourself again and again! Male colleagues को जहाँ एक बार में accept कर लिया जाता है, वहीं women lawyers को constantly अपनी capability साबित करनी पड़ती है।

Source: Financial Times – Work & Careers | Secondary News Source: Pulsivic.com

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