यूक्रेन के मोर्चे पर दादाजी: जब उम्र सिर्फ एक नंबर बन जाए
सोचिए, आप रिटायरमेंट की उम्र में हों और आपके हाथों में किताबें या गार्डनिंग टूल्स की जगह राइफल थमा दी जाए? यूक्रेन-रूस वॉर में यही हो रहा है। जहाँ आमतौर पर युद्ध में 20-30 साल के जवानों की तस्वीरें दिखती हैं, वहाँ अब 50+ के दादाजी फ्रंटलाइन पर हैं। और हैरानी की बात ये नहीं कि वे लड़ रहे हैं, बल्कि ये कि उन्हें लड़ना पड़ रहा है।
कैसे पहुँचे ये हालात?
2022 की वो सुबह याद है जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था? उसके बाद से तो जैसे यूक्रेन के लिए हर दिन एक नई चुनौती लेकर आया। सरकार ने एक अजीबोगरीब फैसला लिया – युवाओं को बचाने के लिए बुजुर्गों को मोर्चे पर भेजना। लॉजिक तो समझ आता है – युवा देश को फिर से बनाएँगे। लेकिन क्या ये फैसला उन दादाओं के लिए न्यायसंगत है जो अपने पोते-पोतियों के लिए लड़ने को मजबूर हैं?
एक 58 साल के सैनिक का वाकया सुनिए: “मेरी बेटी मुझसे पूछती है – ‘पापा, तुम कब घर आओगे?’ मैं क्या जवाब दूँ? क्या कहूँ कि शायद कभी नहीं?” ऐसी कहानियाँ अब आम हो गई हैं।
ग्राउंड रियलिटी क्या है?
यूक्रेनी मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, फ्रंटलाइन पर हर पाँच में से एक सैनिक 50+ का है। ये आँकड़े डराते हैं, पर सच तो यही है। और समस्या सिर्फ़ उम्र की नहीं – ट्रेनिंग की कमी, पुराने हथियार, और वो शारीरिक तकलीफें जो इस उम्र में होती ही हैं। कल्पना कीजिए, जोड़ों के दर्द से जूझता एक सैनिक सर्दियों में खाई में बैठा हो!
क्या कह रही है दुनिया?
यूक्रेन सरकार का स्टैंड साफ है – “हमारे बुजुर्ग हीरो हैं।” लेकिन इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स ग्रुप्स की चिंता भी वाजिब लगती है। एक एक्टिविस्ट ने मुझसे कहा था – “ये नीति दर्दनाक है, पर विकल्प क्या है?” सच कहूँ तो, कोई आसान जवाब नहीं है।
आगे का रास्ता?
अब सवाल ये उठता है कि कब तक चलेगा ये सिलसिला? अगर यूक्रेन युवाओं को नहीं भेजेगा, तो सेना की क्षमता पर सवाल उठेंगे। वहीं अगर भेजेगा, तो देश का भविष्य दाँव पर लग जाएगा। एक तरह से ये दुविधा युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी है – जहाँ हर विकल्प गलत लगता है।
एक बात तो तय है – ये युद्ध सिर्फ़ ज़मीन नहीं, इंसानियत भी हार रहा है। और उन दादाओं की आँखों में छपा डर इसका सबूत है।
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1. यूक्रेन के मोर्चे पर 50+ उम्र के Russian soldiers क्यों लड़ रहे हैं? सच्चाई जानकर हैरान रह जाएंगे
देखिए, यहां बात सिर्फ age limit बढ़ाने की नहीं है। असल में तो ये एक दुखद कहानी है। कल्पना कीजिए – एक 50 साल का आदमी जिसने अपनी जवानी army में गुज़ार दी, अब वापस क्यों जाएगा? तो अब सवाल यह उठता है कि…? पैसों की मजबूरी, सरकार का दबाव, या फिर वो पुरानी ‘मातृभूमि की रक्षा’ वाली भावना? सच तो ये है कि हर किसी की अपनी मजबूरी है। और ये मजबूरियां उन्हें फिर से battlefield पर धकेल रही हैं।
2. क्या ये बुजुर्ग soldiers युद्ध के लिए physically fit हैं? एक कड़वा सच
ईमानदारी से कहूं तो…? जवाब है – कुछ हैं, कुछ नहीं। Reports तो यही कहती हैं। लेकिन असलियत क्या है? एक तरफ तो वो veterans हैं जिनके हाथों में अभी भी कंपन नहीं आया, जिनकी आंखें अभी भी निशाना साध सकती हैं। लेकिन दूसरी तरफ… उन बेचारों का क्या जिनके घुटने दर्द करते हैं, जिन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है? सोचिए, आपके पिता या दादा को अचानक war में भेज दिया जाए – कैसा लगेगा?
3. इन बुजुर्ग soldiers के families का क्या हाल है? दिल दहलाने वाली कहानियां
अरे भाई, सोशल मीडिया पर तो ऐसी-ऐसी posts देखने को मिल जाएंगी जो रुला दें। एक बेटी ने लिखा था – “पापा को तो diabetes है, उन्हें दिन में चार बार insulin लेना पड़ता है। अब वो frontline पर कैसे manage करेंगे?” सच में। और ये कोई एक किस्सा नहीं है। हजारों families की यही हालत है। बिना proper training, बिना सही equipment… बस भेज दिया गया। जैसे कोई मोहरा हो।
4. क्या Russia में इस policy के खिलाफ protests हो रहे हैं? जनता क्या सोचती है?
हालांकि Russian media इसे ज्यादा cover नहीं कर रहा, लेकिन सच तो ये है कि लोग गुस्से में हैं। ‘Grandfather mobilization’… नाम तो सुनने में अजीब लगता है ना? मतलब दादाजी को war में भेजो! Moscow से लेकर Saint Petersburg तक… लोग सड़कों पर उतर आए। एक protestor ने तो बिल्कुल सही कहा था – “ये नहीं चलेगा! हमारे बुजुर्गों को cannon fodder नहीं बनने देंगे।” पर सवाल ये है कि क्या सरकार सुन रही है?
Source: Dow Jones – World News | Secondary News Source: Pulsivic.com