क्या बिन ब्याही लड़कियों को मिलता है मैटरनिटी लीव का अधिकार? जानें पूरी कानूनी जानकारी

क्या बिन ब्याही लड़कियों को मिलता है मैटरनिटी लीव का अधिकार? जानिए असली हकीकत

सुनकर थोड़ा अजीब लगता है न? पर सच तो यही है कि आज भी हमारे देश में अविवाहित माँ बनने वाली लड़कियों को लेकर सवाल उठते हैं। मैटरनिटी लीव को लेकर तो खैर… बात ही अलग है! असल में देखा जाए तो ये सिर्फ एक कानूनी मसला नहीं, बल्कि हमारी सोच का भी आईना है। पिछले कुछ सालों में तो इस पर बहस और भी तेज हुई है, खासकर जब से कुछ बड़ी कंपनियों ने अपनी अविवाहित महिला कर्मचारियों को यह अधिकार देने से साफ मना कर दिया। लेकिन सच्चाई क्या है? चलिए, गहराई से समझते हैं।

कानून की भाषा में: क्या है असल हकीकत?

देखिए, मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 की बात करें तो… है न मजेदार बात? ये कानून तो हमारे दादा-दादी के जमाने का है! पर 1986 में हुए संशोधन ने गेम ही बदल दिया। कानून साफ कहता है – “मैटरनिटी लीव शादीशुदा होने की रस्मी कागजी कार्रवाई से जुड़ा मसला नहीं है।” मतलब साफ है – चाहे कुंआरी हो या सधवा, हर गर्भवती महिला का यह अधिकार है।

पर यहाँ दिक्कत कहाँ आती है? सोचिए जरा… कानून तो ठीक है, पर समाज की मानसिकता? अभी भी कई ऑफिसों में तो बिन ब्याही लड़कियों को मातृत्व अवकाश माँगने पर तिरछी निगाहों से देखा जाता है। कुछ तो यहाँ तक कह देते हैं – “ये सब पश्चिमी संस्कृति का असर है!” वाह भई वाह!

हाल के घटनाक्रम: क्या बदला है?

पिछले 5-7 सालों में तो इस मामले में काफी हलचल हुई है। Labour Ministry ने तो साफ-साफ कह दिया है – “मैरिटल स्टेटस कोई मायने नहीं रखता।” पर कुछ कंपनियों ने तो सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुँचा दिया! है न मजेदार? एक तरफ तो कानून साफ है, दूसरी तरफ कुछ लोग अपनी मनमर्जी चलाना चाहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था – “मातृत्व अवकाश कोई एहसान नहीं, यह तो हर महिला का मौलिक अधिकार है।” और सच कहूँ तो यही तो होना चाहिए न?

लोग क्या कहते हैं?

इस मुद्दे पर तो हर कोई अपनी-अपनी राय रखता है। महिला अधिकार संगठनों का कहना है – “यह तो बस शुरुआत है, असली लड़ाई तो मानसिकता बदलने की है।” सही कहा न?

कॉरपोरेट जगत की बात करें तो… अरे भई, वहाँ तो किस्म-किस्म के लोग हैं! कुछ कंपनियाँ तो बहुत progressive हैं, पर कुछ का तर्क है – “इससे हमारा खर्च बढ़ेगा।” हाँ, जैसे प्रॉफिट बढ़ाने पर तो कोई आपत्ति नहीं होती!

आगे की राह: क्या हो सकता है समाधान?

अब सवाल यह उठता है कि आगे क्या? सबसे पहले तो सरकार को इस कानून को सख्ती से लागू करवाना होगा। Labour inspectors को थोड़ा और सक्रिय होना पड़ेगा। दूसरा, और जरूरी बात – समाज की सोच बदलने की जरूरत है। क्या हम सच में इतने पिछड़े हैं?

लॉन्ग टर्म में तो और भी कदम उठाने होंगे। जैसे पैटरनिटी लीव को बढ़ावा देना। क्योंकि बच्चा पालना सिर्फ माँ की जिम्मेदारी थोड़े न है! और हाँ, गोद लेने वाले माता-पिता के अधिकारों को भी स्पष्ट करना होगा।

असल में बात इतनी सी है – मातृत्व कोई चुनाव नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। और इसे शादी की अंगूठी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। सोचिए जरा, अगर आपकी बेटी या बहन कभी ऐसी स्थिति में हो तो? तब भी वही रवैया रखेंगे?

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तो देखा जाए तो बात साफ है – भारतीय कानून में मैटरनिटी लीव का अधिकार शादी-शुदा होने या न होने से जुड़ा हुआ नहीं है। चाहे कोई महिला married हो या single, माँ बनने का हक सबको बराबर मिलता है। सच कहूँ तो यह बात अक्सर लोगों को हैरान कर देती है!

क्या कहता है कानून?

Maternity Benefit Act, 1961 के मुताबिक, हर working woman को प्रेग्नेंसी और डिलीवरी के दौरान पूरी छुट्टी मिलती है – साथ ही और भी कई सुविधाएँ। असल में यह उतना ही ज़रूरी है जितना कि किसी बीमारी में रेस्ट लेना। लेकिन यहाँ दिक्कत क्या है? समाज में फैली वही पुरानी सोच जो हर चीज़ को शादी से जोड़कर देखती है।

एक तरफ तो कानून साफ-साफ बोल रहा है, दूसरी तरफ लोगों के दिमाग में question marks। ईमानदारी से कहूँ तो यह वक्त की ज़रूरत है कि हर महिला अपने rights के बारे में जागरूक हो। जानकारी ही तो है जो आपको strong बनाती है। है न?

सच तो यह है कि ये सुविधाएँ कोई charity नहीं, बल्कि हक हैं। और इन्हें लेने में किसी को शर्म या hesitation नहीं होनी चाहिए। बस इतना याद रखिए – कानून आपके साथ है। बाकी…लोगों को समझने दीजिए, वक्त लगेगा।

Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com

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