शर्मनाक! मां का शव स्ट्रेचर पर लेकर बेटा पैदल चला 1 KM… सिस्टम कहाँ है?
क्या आप कल्पना कर सकते हैं? एक बेटा अपनी माँ के शव को स्ट्रेचर पर लादे, और पूरा 1 किलोमीटर पैदल चले… शनिवार को हमीरपुर के यमुना पुल पर यह दिल दहला देने वाला नज़ारा देखने को मिला। असल में, कानपुर से आ रहे शव वाहन को पुल पर रोक दिया गया – जिसमें सुमेरपुर के टेढ़ा गांव की शिवदेवी जी का शव था। और कारण? पुल की मरम्मत! मतलब साफ है न – प्रशासन को मरम्मत से फुर्सत ही नहीं मिली कि किसी इंसानी पीड़ा पर ध्यान देता।
पुल की मरम्मत या इंसानियत की मरम्मत?
यमुना पुल हमीरपुर का प्रमुख पुल है – ठीक है, मरम्मत जरूरी थी। लेकिन भईया, क्या आपातकालीन स्थितियों के लिए कोई back-up plan नहीं होता? शव वाहन टेढ़ा गांव जा रहा था, जहां शिवदेवी जी का अंतिम संस्कार होना था। परिजनों ने जब प्रशासन से गुहार लगाई, तो सुनने वाला कोई नहीं था। सच कहूँ तो, ऐसा लगा जैसे नियम-कानून इंसानों के लिए नहीं, इंसान नियमों के लिए पैदा हुए हैं!
स्थानीय लोगों ने भी साथ दिया, पर क्या फायदा? प्रशासन तो अपने ढंग से चल रहा था। अंततः परिजनों को वही करना पड़ा जो कोई नहीं करना चाहेगा – स्ट्रेचर पर शव लेकर पैदल चलना। ये तस्वीर सिर्फ एक घटना नहीं, सिस्टम की पूरी विफलता को दिखाती है।
आक्रोश फैला, पर सुधरेगा कौन?
इस घटना ने सोशल media पर तूफान ला दिया। परिजनों का गुस्सा तो समझ आता है – “हमने गिड़गिड़ाया, पर किसी ने सुना नहीं।” स्थानीय लोग भी आग बबूला हैं। लेकिन प्रशासन का जवाब? बस फॉर्मलिटी वाला – “सुरक्षा नियम जरूरी हैं।” हाँ भई, नियम तो ठीक हैं, पर दिल कहाँ खो दिया आपने?
और सबसे बड़ा सवाल – क्या ambulance और शव वाहनों के लिए कोई विशेष छूट नहीं होनी चाहिए? आखिर ये तो basic humanity का मामला है। प्रशासन ने जांच का वादा किया है, पर हम सब जानते हैं न – ये जांच कहाँ तक पहुँचेगी?
अब क्या? सबक या सिर्फ खबर?
ये घटना पूरे देश के लिए आईना है। System में flexibility नहीं होगी, तो ऐसे हादसे होते रहेंगे। सच पूछो तो, ये कोई पहली घटना नहीं है… न आखिरी होगी। जब तक हमारी सोच नहीं बदलेगी, तब तक नियम ही हम पर राज करते रहेंगे।
एक सवाल जो मन को कचोटता है – क्या हम इंसानियत को नियमों से ऊपर नहीं रख सकते? या फिर हम मशीन बनते जा रहे हैं… बिल्कुल उसी सिस्टम की तरह जिसकी हम आलोचना करते हैं?
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यह घटना सिर्फ एक दुखद मामला नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे की पोल खोल देती है। सोचिए, जब एक बेटा अपनी माँ के शव को स्ट्रेचर पर लादकर पैदल ही अस्पताल ले जाने को मजबूर हो, तो क्या यह सिर्फ उसकी व्यक्तिगत त्रासदी है? नहीं न! असल में यह तो पूरे सिस्टम की विफलता का सनसनीखेज उदाहरण है।
और सच कहूँ तो… ये वाकया हमारी सामूहिक संवेदनशीलता पर सीधा प्रहार करता है। जैसे कोई चाकू से काट दे। मतलब साफ है – न तो हम इंसान रहे, न ही हमारी प्रशासनिक मशीनरी। दोनों ही फेल हो चुके हैं।
ऐसे हादसे सिर्फ दिल दहला देने वाली खबर नहीं होते। देखा जाए तो ये एक जिंदा आईना हैं जो हमारे सामने तान देता है – बदलाव की जरूरत अब नहीं तो कभी नहीं। वैसे भी, कब तक ऐसे मामलों को ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटना’ कहकर टालते रहेंगे?
सच तो यह है कि… जब तक हम सचमुच जागेंगे नहीं, तब तक ये आईना हमें लगातार शर्मिंदा करता रहेगा। और ये शर्म सिर्फ किसी एक की नहीं, हम सभी की है। है न?
शर्मनाक घटना: जब एक बेटे को माँ का शव लेकर पैदल चलना पड़ा – कुछ सवाल और जवाब
ये कहानी सुनकर दिल दहल जाता है, है न? एक बेटा जिसने अपनी माँ को खोया, और फिर उसके साथ हुआ ये सब… चलिए, इस दुखद घटना के बारे में कुछ सवालों पर बात करते हैं।
1. ये सब कहाँ हुआ, और क्यों इतना चर्चा में है?
दिल्ली का यमुना पुल। जी हाँ, वही जहाँ रोजाना हजारों गाड़ियाँ गुजरती हैं। लेकिन उस दिन एक बेटे को अपनी माँ का शव स्ट्रेचर पर लादकर पैदल चलना पड़ा। क्यों? क्योंकि hearse को वहीं रोक दिया गया था। सोचिए, कैसा लगा होगा उस बेटे को?
2. भला hearse को रोका क्यों गया?
असल में, यहाँ कहानी थोड़ी धुंधली हो जाती है। ट्रैफिक पुलिस ने रोका, ये तो साफ है। लेकिन वजह? कोई ठोस जवाब नहीं। क्या कोई नियम था? या फिर सिर्फ सिस्टम की बेरुखी? हालांकि, एक बात तो तय है – ये पूरा मामला हमारी सिस्टम की असफलता की कहानी कहता है।
3. क्या किसी ने उस बेटे की मदद की?
अच्छी बात ये है कि हाँ, बाद में मदद आई। कुछ स्थानीय लोग आगे आए, अधिकारियों ने भी हस्तक्षेप किया। शव को सही तरीके से ले जाने का इंतजाम हुआ। लेकिन सवाल ये है कि इतनी देर क्यों? मदद पहले क्यों नहीं आई?
4. लोगों ने इस पर कैसी प्रतिक्रिया दी?
सोशल मीडिया पर तूफान आ गया था। लोग गुस्से में थे – और हों भी क्यों न? किसी के दुख को और बढ़ाने जैसा था ये सब। प्रशासन पर सवाल उठे, पुलिस की कार्रवाई पर आपत्ति जताई गई। कुछ अधिकारियों ने जाँच का वादा किया, लेकिन हम सभी जानते हैं न, अक्सर ऐसे वादे कहाँ तक पूरे होते हैं?
सच कहूँ तो, ये घटना सिर्फ एक बेटे की दर्द भरी कहानी नहीं है। ये हमारे सिस्टम की कहानी है। एक ऐसी व्यवस्था की कहानी जहाँ इंसानियत कहीं पीछे छूट जाती है। क्या हम सच में इतने बेरहम हो गए हैं?
Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com