3.8 लाख का कर्ज, 10% ब्याज और एक जानलेवा दबाव – क्या साहूकारों की मांग बनी आखिरी तिनका?
पुदुचेरी से एक ऐसी खबर आई है जो दिल दहला देती है। साहूकारों के चंगुल में फंसे एक व्यक्ति ने 3.8 लाख रुपए के कर्ज और हर महीने 38,000 रुपए (यानी 10% ब्याज!) के दबाव में आत्महत्या कर ली। असल में देखा जाए तो ये सिर्फ एक आदमी की कहानी नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों की दास्तान है जो इसी तरह के शोषण का शिकार हो रहे हैं। पीड़ित तमिलगा वेत्री कझगम के कार्यकर्ता थे, और उनके सुसाइड नोट में अभिनेता विजय से परिवार की देखभाल की गुहार थी। सच कहूं तो, ये पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
क्या हुआ था असल में?
40 साल के आसपास के इस शख्स ने शायद किसी जरूरत के चलते 3.8 लाख का कर्ज लिया होगा। लेकिन साहूकारों ने तो जैसे उनकी जान ही ले ली – महीने का 10% ब्याज! गणित की भाषा में बात करें तो ये सालाना 120% ब्याज बैठता है। भला कोई कैसे चुका पाएगा इतना?
दबाव बढ़ता गया, मानसिक तनाव बढ़ता गया… और आखिरकार उन्होंने ये कदम उठा लिया। उनके सुसाइड नोट में जो लिखा था, वो पढ़कर लगता है मानो कोई डूबते हुए आखिरी बार हाथ हिला रहा हो। अभिनेता विजय से मदद की गुहार… पर क्या ये सिस्टम इतना खोखला हो गया है कि लोगों को सेलेब्रिटीज़ के सहारे जीने की गुज़ारिश करनी पड़े?
कानून कहाँ सो रहा है?
RBI के नियम तो हैं, पर लगता है साहूकारों को पढ़ने का टाइम नहीं मिलता। 10% महीने का ब्याज? ये तो खुला शोषण है! IPC की धारा 420 और 306 जैसे प्रावधान ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए ही बने हैं। पर सच ये है कि ऐसे मामलों में पुलिस की प्रतिक्रिया सुस्त ही रहती है।
सरकारी योजनाएं हैं जरूर – मुद्रा लोन, सब्सिडी वगैरह। पर जब तक ये जानकारी आम आदमी तक नहीं पहुँचेगी, तब तक क्या फायदा? गाँव का एक किसान RBI की वेबसाइट कहाँ देखेगा भला?
मानसिक स्वास्थ्य – जिस पर हम अभी भी बात करने से कतराते हैं
ये केस सिर्फ पैसों की बात नहीं है। ये उस मानसिक उत्पीड़न की कहानी है जो कर्ज लेने वालों को धीरे-धीरे मार डालता है। भारत में आज भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कितनी गलतफहमियाँ हैं! ‘डिप्रेशन? ये तो अमीरों की बीमारी है’ – ऐसी सोच अभी भी गाँव-गाँव में घूम रही है।
वंदे भारत और किरण जैसी हेल्पलाइन्स तो हैं, पर क्या आपने कभी किसी ग्रामीण इलाके में इनके पोस्टर देखे हैं? NGO वाले शहरों में सेमिनार करके फोटो खिंचवा लेते हैं, असली मदद तो दूर की बात रही।
आखिर क्या हो समाधान?
सरकार को चाहिए कि:
– साहूकारों पर कार्रवाई के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट बनाए
– ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग सुविधाएं बढ़ाए
– मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को गंभीरता से ले
पर सच तो ये है कि जब तक हम सब मिलकर इस बारे में बात नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। क्या आपने कभी अपने आस-पास ऐसे किसी शोषण के बारे में सुना है? क्या किया आपने? सोचिएगा जरूर…
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ये मामला सच में दिल दहला देने वाला है। साहूकारों का शोषण और कर्ज का बोझ… अरे भाई, कब तक चलेगा ये सब? असल में देखा जाए तो जब तक सरकार सख्त कानून नहीं बनाएगी और गरीबों को affordable interest rates पर loan नहीं मिलेगा, तब तक ये सिलसिला थमने वाला नहीं।
ठीक है न? एक तरफ तो साहूकार मनमानी करते हैं, दूसरी तरफ आम आदमी के पास कोई विकल्प ही नहीं। और नतीजा? ऐसी दर्दनाक घटनाएं।
सच कहूं तो सिर्फ कानून बना देने से काम नहीं चलेगा। ज़रूरत है एक system की जहां गांव-गांव तक banking सुविधाएं पहुंचे। थोड़ा सोचिए – अगर इस शख्स को सही वक्त पर सही मदद मिल जाती, तो शायद आज वो ज़िंदा होता।
लेकिन उम्मीद अभी भी है। अगर society और government मिलकर काम करें, तो बदलाव आ सकता है। वरना… अफसोस, ऐसी खबरें और सुनने को मिलेंगी। बिल्कुल वैसे ही जैसे आजकल अखबारों में रोज़ छपती हैं।
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com