37 साल बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला: ‘गुनहगार है, पर था तो बच्चा ही…’
सुनने में थोड़ा अजीब लगता है न? एक तरफ बलात्कार जैसा घिनौना जुर्म, दूसरी तरफ आरोपी की उम्र का सवाल। सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार 1988 के उस पुराने केस में फैसला सुना दिया जहां अजमेर की एक 11 साल की बच्ची के साथ रेप का मामला था। और हैरानी की बात ये कि 37 साल बाद आरोपी को रिहाई मिल गई। क्यों? क्योंकि कोर्ट को लगा कि घटना के वक्त वो खुद नाबालिग था। Juvenile Justice Act की धाराओं को पलटते हुए ये फैसला आया है। अब मामला वापस Juvenile Justice Board के पास गया है।
क्या हुआ था 1988 में? पूरा किस्सा
ये कहानी शुरू होती है राजस्थान के अजमेर से। 1988 की वो भयानक रात जब एक नाबालिग लड़की के साथ गैंगरेप हुआ। आरोपी ने शुरू से ही कहा था – “सर, मैं तो उस वक्त 16 का भी नहीं था!” लेकिन पुलिस ने उसकी एक न सुनी। कागजात में उम्र बढ़ाकर वयस्क बना दिया गया। और फिर? फिर तो सजा-ए-मौत जैसा हुआ – वयस्कों वाले कानून के तहत सजा! पर सालों बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल रिपोर्ट्स देखीं, तो पता चला – अरे, ये तो सच में बच्चा था!
कोर्ट ने क्या कहा? फैसले की अहम बातें
चीफ जस्टिस की बेंच ने जो बात कही, वो सुनने लायक है। उन्होंने कहा – “भई, कानून तो कानून होता है। Juvenile Justice Act साफ कहता है – नाबालिग के साथ अलग सुलूक होगा।” मतलब साफ है – चाहे जुर्म कितना भी बड़ा क्यों न हो, अगर आरोपी उस वक्त बच्चा था, तो उसके साथ बच्चे जैसा ही बर्ताव होना चाहिए। बस यही सोचकर कोर्ट ने पुराने फैसले को पलट दिया। एक तरह से देखें तो कानून की जीत हुई है। पर सवाल ये कि पीड़िता को न्याय मिला या नहीं?
लोग क्या कह रहे हैं? सोशल मीडिया से लेकर घर-घर तक
इस फैसले पर लोगों की राय बंटी हुई है। पीड़िता के परिवार वाले तो मानो टूट से गए – “37 साल इंतजार के बाद ये?” वहीं human rights वालों का कहना है कि कोर्ट ने सही किया। Twitter पर तो #JusticeVsMercy ट्रेंड कर रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं – “अगर उस वक्त बच्चा था, तो सजा भी बच्चों वाली होनी चाहिए थी।” दूसरी तरफ कुछ की राय है – “रेप जैसे जुर्म में उम्र का क्या लेना-देना?” सच कहूं तो ये वाकई एक ग्रे एरिया वाला मामला है।
आगे क्या? कानूनी रास्ता अभी खत्म नहीं हुआ
अब ये केस फिर से शुरुआती स्टेशन पर पहुंच गया है – Juvenile Justice Board के पास। वहां नई सुनवाई होगी। कानून के जानकार कह रहे हैं कि इस फैसले से पुराने ढेर सारे केसों में हलचल मच सकती है। क्या पता, और कितने “वयस्क” बना दिए गए नाबालिगों को न्याय मिले? पर एक बात तो तय है – ये केस हमारी न्याय प्रणाली के सामने एक बड़ा सवाल छोड़ गया है। कहीं हम भूल तो नहीं रहे कि एक तरफ कानून का शिकंजा है, तो दूसरी तरफ इंसानियत भी तो देखनी चाहिए?
अंत में बस इतना – ये कोर्ट का फैसला ऐसा है जैसे दो नावों पर पैर रखने की कोशिश। एक तरफ नाबालिग के अधिकार, दूसरी तरफ पीड़िता का दर्द। अब देखना ये है कि Juvenile Justice Board इस गंभीर पहेली का क्या हल निकालती है। क्योंकि अंततः, न्याय सबको मिलना चाहिए – चाहे वो पीड़िता हो या फिर… एक गलती कर बैठा नाबालिग।
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com