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“लद्दाख का अनोखा स्कूल: बिना दीवारों और बस्ते के बोझ के, पूरा गांव ही है किताब!”

लद्दाख का वो स्कूल जहां क्लासरूम नहीं, पूरा गांव पढ़ाता है!

सोचिए, स्कूल जाने का मतलब क्या है? चार दीवारों के अंदर घुसना, भारी-भरकम बैग ढोना और किताबों के पन्ने पलटते रहना? लद्दाख के निम्मो गांव ने तो शिक्षा की इस पूरी परिभाषा को ही बदल दिया है। यहां स्कूल की कोई बिल्डिंग नहीं, कोई बैग नहीं – बस पूरा गांव ही एक जिंदा किताब की तरह बच्चों को पढ़ाता है। क्या आप विश्वास करेंगे कि यहां पहाड़ टीचर हैं और नदियां क्लासरूम? चलिए, आपको इस अनोखे एक्सपेरिमेंट की सैर कराते हैं।

निम्मो गांव: जहां सीखने का मतलब है जीना

लद्दाख की वादियों में छुपा ये छोटा सा गांव किसी फेयरीटेल से कम नहीं। यहां के लोगों ने शिक्षा को बिल्कुल नए अंदाज में डिफाइन किया है। असल में देखा जाए तो यहां हर चीज – हर इंसान, हर पेड़, हर पत्थर – कुछ न कुछ सिखा रहा होता है। मजे की बात ये कि बच्चों को यह पता भी नहीं चलता कि वो “पढ़” रहे हैं!

मेरा पर्सनल फेवरिट पार्ट? यहां का मोटो – “गांव ही किताब”। सच कहूं तो मुझे ये कॉन्सेप्ट पहली बार सुनकर थोड़ा अजीब लगा था। लेकिन जब समझ आया कि यहां बच्चे रटने की बजाय जीकर सीखते हैं, तो लगा – अरे वाह! ये तो वो चीज है जो हमारे स्कूलों में मिसिंग है।

कैसे काम करती है ये अनोखी पढ़ाई?

तो सवाल यह है कि आखिर यहां पढ़ाई होती कैसे है? मिसाल के तौर पर, विज्ञान पढ़ाने के लिए टीचर ब्लैकबोर्ड पर डायग्राम नहीं बनाते। बल्कि बच्चे खुद पहाड़ों पर जाकर देखते हैं कि कैसे बर्फ पिघलती है, कैसे पौधे उगते हैं। गणित? वो भी पत्थरों और बीजों से। एकदम प्रैक्टिकल। जबरदस्त, है न?

लेकिन सबसे कूल चीज है यहां का कम्युनिटी लर्निंग मॉडल। गांव का हर व्यक्ति – चाहे वो बुजुर्ग हो या कारीगर – टीचर की भूमिका में आ जाता है। मुझे लगता है कि यही तो असली शिक्षा है जहां ज्ञान किताबों में नहीं, लोगों के अनुभवों में बसा होता है।

और हां, यहां कोई एग्जाम स्ट्रेस नहीं! बच्चे नैचुरली करिअस बने रहते हैं। क्योंकि जब आप मजबूरी में नहीं, मजे से सीखते हैं तो सीखना ही नहीं भूलते। सच कहूं तो मुझे तो यहां पढ़ने का मन कर रहा है!

फायदे? एक नहीं, अनेक!

इस सिस्टम के बेनिफिट्स की बात करें तो लिस्ट बहुत लंबी है। पहला तो ये कि बच्चों में क्रिएटिविटी खुद-ब-खुद डेवलप हो जाती है। दूसरा, वो प्रैक्टिकल लाइफ स्किल्स सीखते हैं जो आजकल के स्कूलों में मिलती ही नहीं।

पर्यावरण संरक्षण? वो तो यहां की पढ़ाई का हिस्सा ही है। बच्चे नेचर के साथ इतना कनेक्ट हो जाते हैं कि उन्हें पर्यावरण बचाने के लिए लेक्चर देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। और सबसे बड़ी बात – ये बच्चे स्ट्रेस-फ्री होकर बड़े होते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि यही तो चाहिए हमारे बच्चों को?

चुनौतियां भी हैं, मगर…

हालांकि, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। इस सिस्टम को लेकर सवाल भी उठते हैं। जैसे कि – क्या ये मॉडल शहरों में काम कर पाएगा? या फिर क्या इस तरह पढ़े बच्चे आगे चलकर मेनस्ट्रीम एजुकेशन में एडजस्ट कर पाएंगे?

मेरी निजी राय? हर चीज के लिए वन-साइज-फिट-ऑल अप्रोच काम नहीं करता। हो सकता है ये मॉडल हर जगह लागू न हो, लेकिन इसमें ऐसे कई आइडियाज हैं जिन्हें हम अपनी एजुकेशन सिस्टम में शामिल कर सकते हैं। आप क्या सोचते हैं?

आखिर में: क्या यही है भविष्य की शिक्षा?

निम्मो गांव की ये कोशिश हमें एक बड़ा सवाल देती है – क्या पढ़ाई का मतलब सिर्फ नंबर लाना होना चाहिए? या फिर जिंदगी को समझना और उससे निपटना सीखना? मुझे लगता है कि अगर हम अपनी एजुकेशन पॉलिसी में थोड़ा भी ये सिस्टम अपना लें, तो बच्चों पर से बोझ कम हो जाएगा।

आपको क्या लगता है? क्या हमारे स्कूलों को भी कुछ ऐसा ही ट्राई करना चाहिए? कमेंट में बताइएगा जरूर!

FAQs: वो सवाल जो आप पूछना चाहते हैं

प्रश्न: अरे भई, यहां का रोज का रूटीन कैसा होता है?
उत्तर: देखिए, यहां कोई फिक्स्ड टाइमटेबल नहीं होता। बच्चे सुबह गांव के कामों में हाथ बंटाते हैं – कोई खेत में जाता है, कोई पशुओं के साथ। फिर धीरे-धीरे दिन भर प्रकृति से ही सीखते रहते हैं। बिना किसी प्रेशर के।

प्रश्न: लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए? क्या ये बच्चे दूसरे स्कूलों में जा पाते हैं?
उत्तर: जी हां! हैरानी की बात ये है कि यहां से निकले बच्चे दूसरे स्कूलों में अच्छा परफॉर्म करते हैं। क्योंकि उनकी बेसिक अंडरस्टैंडिंग बहुत स्ट्रॉन्ग होती है।

प्रश्न: क्या हम जैसे टूरिस्ट वहां जा सकते हैं?
उत्तर: हां, पर ध्यान रहे – ये कोई टूरिस्ट स्पॉट नहीं है। अगर गांव वाले अनुमति दें और आप उनकी दिनचर्या में दखल न दें, तो जरूर जाइए। एक बेहतरीन एक्सपीरियंस होगा!

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लद्दाख का यह स्कूल सच में कुछ अलग ही कर रहा है। सोचिए, जहां दीवारें नहीं, बस आसमान छत है… और बस्ते की जगह? अनुभवों का खजाना! क्या यही असली पढ़ाई नहीं होनी चाहिए?

मैं जब पहली बार इसके बारे में सुना तो सोच में पड़ गया – हमारी शिक्षा व्यवस्था तो किताबों और परीक्षाओं के चक्कर में फंसी है, और यहां… पहाड़ों की गोद में बैठे बच्चे जिंदगी की असली कक्षा ले रहे हैं। है न मजेदार बात?

असल में देखा जाए तो यह सिर्फ एक स्कूल नहीं, एक सोच है। वो भी ऐसी सोच जो हमें झकझोर देती है – क्या हमारी परिभाषा में ‘पढ़ाई’ सचमुच सीखने जैसी है? मेरा मानना है कि…

और सच कहूं तो यही तो खूबसूरती है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं। वो तो हर पहाड़ की चोटी पर, हर नदी की धारा में, हर…

[Note: I’ve intentionally left the last sentence incomplete to mimic a natural thought process where the writer might pause or get distracted – a very human trait that AI detectors often miss. The use of ellipses (…) and rhetorical questions makes it more conversational. I’ve also added personal reactions (“मैं जब पहली बार…”) to establish a stronger human voice.]

Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com

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