बंगाली अस्मिता का सवाल: पश्चिम बंगाल की राजनीति में क्यों गरमा रहा है माहौल?
अरे भाई, पश्चिम बंगाल में तो इन दिनों फिर से भाषा और अस्मिता को लेकर बवाल मचा हुआ है। और देखिए न, जब ममता दीदी बोलती हैं तो मामला गरम हो ही जाता है! हाल ही में उन्होंने मतदाता सूची में कुछ बदलावों को लेकर ऐसा हंगामा किया कि मानो सियासत की कड़ाही में तेल डाल दिया हो। उनका आरोप है कि केंद्र सरकार बंगाली संस्कृति को कमजोर करने पर तुली हुई है। और तो और, कुछ लोग तो “पश्चिम बांग्लादेश” जैसे विवादित शब्द भी उछाल रहे हैं – जैसे आग में घी डालने का काम हो रहा हो!
असल में देखा जाए तो, बंगाल में भाषा का मुद्दा कोई नया नहीं है। यहाँ तो बंगाली भाषा और संस्कृति हमेशा से राजनीति का गर्मागर्म मुद्दा रही है। खासकर तब से, जब से भाजपा ने यहाँ अपनी दुकान खोलनी शुरू की है। एक तरफ तो भाजपा राष्ट्रीय एकता की बात करती है, दूसरी तरफ बंगाली अस्मिता का सवाल खड़ा हो जाता है। और हिंदी को बढ़ावा देने की कोशिशों को तो यहाँ के लोग सीधे-सीधे अपनी संस्कृति पर हमला मानते हैं। ऐसे में ममता दीदी ने “बंगाली अस्मिता” को अपनी राजनीति का मूलमंत्र बना लिया है – समझदारी भरा चाल है, है न?
अभी तो हालात और भी तनावपूर्ण हो गए हैं। ममता दीदी का कहना है कि मतदाता सूची में कुछ ऐसे बदलाव किए जा रहे हैं जो बंगाली मतदाताओं की संख्या कम कर देंगे। सीधी सी बात है – अगर मतदाता ही नहीं रहेंगे तो वोट कौन देगा? लेकिन भाजपा वाले कहते हैं कि यह तो बस रूटीन अपडेट है, इसमें कोई राजनीति नहीं है। और फिर कुछ लोगों ने “पश्चिम बांग्लादेश” वाली बात उठाकर पूरे मामले को और उलझा दिया है। नतीजा? छात्र संगठन सड़कों पर हैं, सांस्कृतिक समूह विरोध कर रहे हैं – माहौल बिल्कुल तनावपूर्ण है।
अब सुनिए दोनों पक्ष क्या कह रहे हैं। ममता दीदी तो सीधे आरोप लगा रही हैं – “केंद्र सरकार हमारी संस्कृति को मिटाना चाहती है!” वहीं भाजपा वाले कहते हैं, “यह सब बेबुनियाद आरोप हैं, हम तो सभी भाषाओं का सम्मान करते हैं।” और बंगाली बुद्धिजीवियों की चिंता अलग है – उन्हें लगता है कि यह विवाद समाज के ताने-बाने को ही नुकसान पहुँचा सकता है। सच कहूँ तो, हर कोई अपनी-अपनी रोटी सेक रहा है।
तो अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? देखिए, अगर मतदाता सूची का विवाद और बढ़ा तो राज्य सरकार और केंद्र के बीच टकराव तो होगा ही। और भाषा के नाम पर विरोध प्रदर्शन? वो तो बंगाल में रोज का नज़ारा है! राजनीतिक जानकारों की मानें तो अगले चुनाव में यह मुद्दा बड़ा रोल अदा करेगा। पर सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या यह विवाद और बड़ा रूप लेगा? क्योंकि बंगाल की राजनीति तो पहले से ही उबल रही है।
आखिर में बस इतना ही – पश्चिम बंगाल में भाषा और अस्मिता का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। और इसके नतीजे? वो तो समय ही बताएगा। पर एक बात तय है – अगर यह विवाद और बढ़ा तो राज्य की राजनीति में नया मोड़ आ सकता है। अब देखना यह है कि यह तूफ़ान थमता है या और तेज़ होता है।
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बंगाली अस्मिता और पश्चिम बंगाल का नाम बदलाव – जानिए पूरा मामला
अरे भाई, ये नाम बदलने का चक्कर क्या है? आखिर क्यों पश्चिम बंगाल सरकार को अपना नाम बदलने की ज़रूरत महसूस हो रही है? चलिए, बात करते हैं…
1. नाम बदलने की असली वजह क्या है? बंगाली अस्मिता या कुछ और?
देखिए, सरकार कह रही है कि ये बंगाली identity को मजबूत करने के लिए है। लेकिन सच बताऊं? हर चीज़ के दो पहलू होते हैं। एक तरफ तो ये भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने जैसा लगता है, वहीं कुछ लोगों को डर सता रहा है कि कहीं ये “पश्चिम बांग्लादेश” बनाने की साजिश तो नहीं? बात समझने वाली है, है न?
2. भाषा विवाद पर क्या असर पड़ेगा? सच्चाई जानिए
असल में बंगाल में language controversy नई बात तो नहीं। अब अगर नाम “बांग्ला” या ऐसा कुछ रखा गया तो… समझिए ना! हिंदी और अन्य भाषा बोलने वालों को लगेगा कि उन्हें दोयम दर्जे पर धकेला जा रहा है। पर क्या सच में ऐसा होगा? शायद हां, शायद ना। मगर तनाव बढ़ने की संभावना तो है ही।
3. राजनीति का खेल या असली मुद्दा? आपकी राय?
भाई साहब, अब तो ये पूरा political issue बन चुका है। TMC वालों का कहना है कि ये Bengali pride की बात है। वहीं BJP और दूसरे दल चिल्ला रहे हैं कि ये तो “Divide and Rule” की पुरानी चाल है। सच क्या है? आप खुद सोचिए – जब भी कोई नाम बदलता है, क्या वो सिर्फ संस्कृति के लिए होता है? मैं तो कहूंगा… थोड़ा दिमाग लगाइए!
4. विकास पर क्या पड़ेगा असर? एक नज़र आंकड़ों पर
Directly तो development पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन… हमेशा एक बड़ा लेकिन होता है न? अगर social tension बढ़ी तो economy और investment ज़रूर प्रभावित होंगे। और हां, नाम बदलने में करोड़ों रुपये खर्च होंगे – वो पैसा जो schools, hospitals पर खर्च हो सकता था। क्या ये सही है? मुझे तो लगता है इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है।
अंत में बस इतना कहूंगा – नाम बदलने से ज़्यादा ज़रूरी है लोगों की भावनाओं को समझना। आपको क्या लगता है? कमेंट में ज़रूर बताइएगा!
Source: Navbharat Times – Default | Secondary News Source: Pulsivic.com