स्कोरिंग और नॉन-स्कोरिंग विषय – असली फर्क क्या है? चाय की चुस्की के साथ समझें!
भई, स्कूल-कॉलेज के दिनों में हर छात्र के मन में यह सवाल ज़रूर आता है – “यार, कुछ सब्जेक्ट्स में मार्क्स लाना इतना आसान क्यों होता है और कुछ में नंबर कटते ही रहते हैं?” सच कहूं तो मेरे खुद के 12वीं के मार्क्स शीट को देखकर यही सवाल मन में आया था! आज हम बिल्कुल दोस्ताना अंदाज़ में समझेंगे कि स्कोरिंग और नॉन-स्कोरिंग सब्जेक्ट्स में असल फर्क क्या होता है।
स्कोरिंग सब्जेक्ट्स – मार्क्स का जादुई पिटारा? (What are Scoring Subjects?)
देखिए, स्कोरिंग सब्जेक्ट्स वो होते हैं जहां अगर आपने थोड़ी सी भी मेहनत की है तो मार्क्स झोली में आते ही हैं। ये वो विषय हैं जहां:
– जवाब का फॉर्मेट फिक्स्ड होता है (जैसे मैथ्स के सवालों में स्टेप वाइज मार्किंग)
– इवैल्यूएशन क्राइटेरिया क्लियर होता है
– और सबसे बड़ी बात – यहां ‘सरप्राइज’ कम मिलते हैं!
उदाहरण के तौर पर, मैथ्स ले लीजिए। अगर आपने फॉर्मूले याद कर लिए और प्रैक्टिस की है, तो 90% से ऊपर मार्क्स पक्के हैं। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में कोहली को लेंग्थ बॉल पर फुल्ली मारने का फॉर्मूला आता है! साइंस के केमिस्ट्री और फिजिक्स में भी यही बात लागू होती है – थ्योरी + प्रैक्टिकल का कॉम्बो।
पर सच बताऊं? इन सब्जेक्ट्स का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इंजीनियरिंग या मेडिकल जैसे competitive exams में ये सीधे काम आते हैं। मतलब एक पत्थर से दो शिकार वाली बात!
नॉन-स्कोरिंग सब्जेक्ट्स – जहां मार्क्स मूड पर निर्भर करते हैं! (What are Non-Scoring Subjects?)
अब बात करते हैं उन विषयों की जहां मार्क्स लाना थोड़ा… हम कहें तो ‘एडवेंचरस’ हो जाता है। ये वो सब्जेक्ट्स हैं जहां:
– जवाब सही है या गलत – ये चेकर के मूड पर निर्भर करता है
– क्रिएटिविटी और ओरिजिनैलिटी मायने रखती है
– और हां, यहां ‘सरप्राइज’ ज़रूर मिलते हैं!
हिंदी या इंग्लिश लिटरेचर ले लीजिए। आपने कविता का मतलब समझा भी हो, पर अगर चेकर को आपकी व्याख्या पसंद नहीं आई तो… खैर, आप समझ गए! आर्ट्स या म्यूजिक जैसे सब्जेक्ट्स तो और भी ज्यादा सब्जेक्टिव होते हैं। यहां आपकी क्रिएटिविटी ही आपका सबसे बड़ा हथियार है।
लेकिन! यहां एक बड़ा ‘लेकिन’ है। अगर आपको इन विषयों में सच्ची दिलचस्पी है, तो ये आपके लिए गोल्डमाइन साबित हो सकते हैं। फिल्म्स, मीडिया, राइटिंग – ये सभी फील्ड्स इन्हीं विषयों से जुड़े हैं। तो निराश होने की कोई बात नहीं!
स्कोरिंग vs नॉन-स्कोरिंग – असली टक्कर!
अब सीधे-सीधे समझते हैं इनमें मुख्य अंतर:
1. मार्क्स लाने का तरीका: स्कोरिंग में फॉर्मूले याद करो, नॉन-स्कोरिंग में दिमाग लगाओ!
2. चेकर का मूड: स्कोरिंग में नहीं चलता, नॉन-स्कोरिंग में बहुत चलता है!
3. करियर ऑप्शन्स: स्कोरिंग – इंजीनियर/डॉक्टर, नॉन-स्कोरिंग – राइटर/आर्टिस्ट
एक दिलचस्प बात – मेरे एक दोस्त ने स्कोरिंग सब्जेक्ट्स लेकर IIT क्रैक किया, जबकि दूसरी दोस्ती ने इंग्लिश लिटरेचर में अपना करियर बनाया। दोनों ही आज सफल हैं। तो फैसला क्या है?
सब्जेक्ट चुनते वक्त याद रखने वाली बातें
अंत में, मेरी तरफ से कुछ सलाह:
– अपनी दिलचस्पी को सबसे ऊपर रखें। सिर्फ मार्क्स के पीछे भागना… वैसे ही है जैसे पैसों के लिए शादी करना!
– टीचर्स और बड़ों से सलाह ज़रूर लें, पर फैसला आपका होना चाहिए।
– याद रखें – कोई भी सब्जेक्ट ‘कम’ नहीं होता। हर फील्ड में स्कोप है!
आखिरी बात (नहीं, निष्कर्ष नहीं!)
तो दोस्तों, स्कोरिंग हो या नॉन-स्कोरिंग – हर सब्जेक्ट की अपनी अहमियत है। ज़रूरी यह है कि आप जो चुनें, उसमें पूरे दिल से लगें। वैसे भी, जिंदगी सिर्फ मार्क्स शीट से बड़ी होती है, है न?
क्या आपके स्कूल/कॉलेज में भी यह ‘स्कोरिंग vs नॉन-स्कोरिंग’ का खेल चलता है? कमेंट में ज़रूर बताएं!
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तो देखा जाए तो, scoring और non-scoring subjects का फर्क समझना इतना मुश्किल नहीं है। Maths और Science जैसे subjects तो सीधे आपके marks में जुड़ते हैं – जैसे चाय में चीनी! लेकिन Art और Music जैसे subjects? वो भी कम ज़रूरी नहीं। असल में, ये subjects आपको पूरी तरह से develop करने में मदद करते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ scoring subjects पर focus करना सही है? बिल्कुल नहीं! क्योंकि life में सबकुछ marksheet तक ही तो नहीं होता। ईमानदारी से कहूं तो, मेरे हिसाब से दोनों तरह के subjects को balance करना ही smart तरीका है।
और हां, एक छोटी सी tip – अगर आपको लगता है कि non-scoring subjects ‘time waste’ हैं, तो थोड़ा सोचिए। क्या आप जानते हैं कि music सीखने से maths के sums solve करने की ability improve होती है? सच में! तो अगली बार जब कोई कहे कि ‘ये सब पढ़ने से क्या फायदा’, आप उन्हें ये fact बता दीजिएगा।
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com