झालावाड़ स्कूल त्रासदी: 7 मासूमों की जान गई… पर सवालों के जवाब कहाँ हैं?
सुबह की चाय का पहला घूंट भी गले नहीं उतरा होगा कि राजस्थान के झालावाड़ से आई खबर ने सबकी सांसें रोक दीं। पिपलोदी गांव का वो स्कूल, जहाँ कल तक बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थीं, आज मौत का सन्नाटा पसरा है। छत गिरी, 7 बच्चे चले गए… बस चले गए। 29 घायल, जिनमें से कई तो अभी भी जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं। और हम? हम बस “ओह-तोह” करके आगे बढ़ जाएंगे न? क्योंकि यही तो हमारी आदत बन गई है।
कागजों में मजबूत, हकीकत में कच्चे स्कूल
अब जब मामला सामने आया है तो सबको याद आ रहा है कि “अरे! इस स्कूल की हालत तो सालों से खराब थी!” दीवारों में दरारें? हाँ, थीं। शिकायतें? की गई थीं। पर सुनता कौन है भाई? यहाँ तो तबादले होते हैं, इमारतें नहीं संवारी जातीं। राजस्थान में ये पहली बार नहीं हुआ – और आखिरी भी नहीं होगा। जब तक हमारी नीयत नहीं सुधरती।
जब दुर्घटना हो जाए तो एक्टिव हो जाते हैं सब
मैंने एक कहावत सुनी है – “जब बच्चा डूब जाए तो कुएँ का मुँह बंद करने वाले लोगों की कमी नहीं होती।” एसडीएम पहुँच गए, पुलिस आ गई, FIR हो गई… सब फॉर्मेलिटी पूरी! गरीबों के बच्चे मर गए तो क्या हुआ? सरकारी खाने में तो सबका नमक है न? अस्पतालों में भर्ती कराया गया – वाह! क्या बात है! पर ये सब क्यों नहीं होता उससे पहले, जब दीवारें दरक रही थीं?
राजनीति का पारा चढ़ा, पर दर्द किसका बढ़ा?
मुख्यमंत्री जी ने दुख जताया (जैसा कि हर बार करते हैं), विपक्ष ने सरकार को घेरा (जैसा कि हर बार करते हैं), मीडिया ने TRP बटोरी (जैसा कि… आप समझ गए होंगे)। पर उन माँओं के आँसू किसने पोंछे? जिनके लाल स्कूल बैग लेकर गए थे और अस्पताल से बॉडी बैग में लौटे? सिस्टम तो बस एक ही मंत्र जानता है – “चलता है”।
कल फिर कोई स्कूल गिरेगा… और?
सच कहूँ तो मुझे पूरा यकीन है कि ये सब कुछ दिनों में भुला दिया जाएगा। जांच समिति रिपोर्ट देगी (3 साल बाद), मुआवजे का ऐलान होगा (जो आधा भी नहीं मिलेगा), और फाइलें बंद हो जाएँगी। अगले साल किसी और स्कूल की छत गिरेगी… और फिर से यही नाटक। हमारी ताकत? हम भारतीय हैं – हमें सबकुछ झेलने की आदत है।
कागजी शेर और असली चूहे
देखिए, मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूँ। पर इतना जानता हूँ कि जब तक ठेकेदार-अधिकारी-नेता की ये तिकड़ी चलती रहेगी, तब तक ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी। सरकारी फाइलों में ये केस नंबर बनकर रह जाएगा, पर उन मासूमों के सपने? वो तो कभी के धूल चाट रहे हैं। क्या हम सच में इतने बेबस हैं? या फिर… इतने बेशर्म?
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झालावाड़ स्कूल त्रासदी… सुनकर ही दिल दहल जाता है। क्या हम कभी सीखेंगे? 7 मासूम बच्चों की जान चली गई, और अब वही पुराना राग – जांच, वादे, फिर सब भूल जाना। असल में देखा जाए तो ये कोई एक्सीडेंट नहीं, सिस्टम की पूरी फेलियर है।
हालांकि सवाल यह है कि क्या सिर्फ नियम बना देने से काम चल जाएगा? मेरे ख्याल से नहीं। जैसे हमारे घर में बिजली का खराब तार हो तो हम फौरन ठीक करवाते हैं, वैसे ही इन स्कूलों की सुरक्षा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
सच कहूं तो, ये घटना सिर्फ झालावाड़ तक सीमित नहीं। पूरे देश में कितने स्कूलों में आपातकालीन निकास या फायर सेफ्टी की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं? शर्मनाक हालात।
अब बात करें समाधान की… सरकार को चाहिए कि:
– स्कूलों का सालाना safety audit अनिवार्य करे
– जिम्मेदार अधिकारियों पर सख्त एक्शन ले
– पेरेंट्स को भी safety guidelines के बारे में educate करे
पर सबसे बड़ा सवाल – क्या हम सच में बदलाव चाहते हैं? या फिर एक और हादसा होने तक इंतज़ार करेंगे? सोचने वाली बात है…
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com