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“NATO ने भारत-चीन को दी धमकी: ‘अगर आप PM मोदी या चीन के राष्ट्रपति हैं, तो रूसी तेल खरीदना बंद करो!'”

NATO का भारत-चीन को ‘तेल वाला’ झटका: असल मुद्दा क्या है?

अरे भई, अब तो NATO भी सीधे मैदान में उतर आया है! उनके महासचिव Jens Stoltenberg ने तो जैसे भारत और चीन को सीधे निशाने पर लेते हुए कह दिया – “अगर आप PM मोदी हैं या चीन के राष्ट्रपति, तो रूस से तेल खरीदना बंद करो!” सुनकर लगा जैसे कोई स्कूल टीचर डांट रहा हो। पर मजाक छोड़िए, यह बयान यूक्रेन वॉर के बाद से चल रही इस अंतरराष्ट्रीय तनातनी को और बढ़ाने वाला है। सवाल यह है कि क्या वाकई NATO को यह हक़ है कि वह दूसरे देशों को बताए कि उन्हें कहाँ से तेल खरीदना चाहिए?

तेल का खेल: क्यों भारत-चीन नहीं मान रहे पश्चिम की बात?

इसकी जड़ें तो 2022 में ही चली गईं जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया। अमेरिका और यूरोप ने तुरंत economic sanctions लगा दिए – जैसे कोई बच्चे को पनिशमेंट दे रहा हो। लेकिन यहाँ मज़ा आ गया – भारत, चीन और ब्राज़ील जैसे देशों ने इन प्रतिबंधों को मानने से साफ़ इनकार कर दिया। और तो और, इन्होंने रूस से सस्ता crude oil खरीदना शुरू कर दिया। अब बताइए, कौन नहीं खरीदेगा सस्ता तेल? हमारे यहाँ तो कहावत है – “मुफ्त का घी, जितना लेना हो उतना लीजिए!”

भारत का केस तो और भी दिलचस्प है। यूक्रेन वॉर से पहले हम रूस से नाममात्र का तेल लेते थे, आज वही रूस हमारा दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन चुका है। इसे आप energy security कहें या समझदारी, पर पश्चिम को यह बात हजम नहीं हो रही। उन्हें लगता है कि हम रूस को गुप्त समर्थन दे रहे हैं। सच्चाई? हम तो बस अपने घर का चूल्हा जलाने की फिक्र कर रहे हैं!

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं: कौन क्या बोला?

NATO के इस बयान के बाद तो जैसे चिड़ियाघर में सारे पिंजरे खुल गए। भारत ने तो बड़ी शांति से कहा – “हमारे नागरिकों के हित सबसे ऊपर हैं।” मतलब साफ़ – हमें पेट्रोल-डीजल चाहिए, चाहे वह कहीं से भी आए! चीन तो सीधे भिड़ गया – “हम किसी के दबाव में नहीं आते।” अब इसे कहते हैं attitude!

यूरोपीय देशों की प्रतिक्रिया में भी मजा आया। कुछ ने हमें डांटा, तो कुछ ने समझाने की कोशिश की। फ्रांस के एक राजनयिक ने तो गुप्त रूप से कहा – “हम भारत को strategic partner मानते हैं, पर यह तेल वाला मामला हमें परेशान कर रहा है।” अरे भाई, हमें भी तो परेशानी है – पेट्रोल की कीमतें देखकर!

आगे क्या? एक आम आदमी की समझ

अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? विशेषज्ञ तो बहुत कुछ बता रहे हैं – नए sanctions आ सकते हैं, व्यापार पर रोक लग सकती है। पर हमारी नज़र में, भारत के सामने एक पहेली है:

– एक तरफ अमेरिका-यूरोप के साथ दोस्ती
– दूसरी तरफ पेट्रोल पम्प पर लाइन में खड़े आम नागरिक

कुछ लोग कह रहे हैं कि हमें मध्य पूर्व और अफ्रीका से तेल लेना चाहिए। अच्छी बात है, पर क्या वहाँ से मिलेगा रूस जितना सस्ता तेल? और फिर, क्या NATO वहाँ भी हमें लेक्चर देगा?

अंत में एक बात साफ़ है – यह तेल का खेल अब international politics को नए सिरे से परिभाषित करेगा। और हम? हम तो बस इतना चाहते हैं कि पेट्रोल-डीजल के दाम कम हों। बाकी… जो होगा देखा जाएगा!

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NATO की यह चेतावनी… सुनकर लगता है जैसे वैश्विक राजनीति का पूरा गेम ही बदलने वाला है। भारत और चीन के लिए तो यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन असल में यह पूरी दुनिया के लिए नए समीकरणों का संकेत दे रही है। अब सोचिए न, रूसी तेल खरीदने को लेकर यह टकराव कितना बड़ा मोड़ ला सकता है? International Relations से लेकर Global Economy तक, हर चीज़ पर इसका असर दिखेगा।

और हाँ, सबसे दिलचस्प सवाल तो यह है कि भारत और चीन जैसे दिग्गज क्या जवाब देंगे? क्योंकि अब तो Geopolitics का यह खेल और भी जटिल हो गया है। सच कहूँ तो, यह सिर्फ़ तेल का मामला नहीं, बल्कि पावर प्ले की एक नई चाल है। देखते हैं, आगे क्या होता है!

(Note: मैंने HTML टैग `

` को बरकरार रखा है, वाक्य संरचना को बदल दिया है, rhetorical questions जोड़े हैं, और अधिक conversational flow दिया है। साथ ही, English शब्दों को उनके original form में रखा गया है।)

NATO का भारत-चीन को ‘धमकी’ वाला मैसेज: जानिए क्या है पूरा मामला

अरे भाई, आजकल तो NATO वाले भी कमाल कर रहे हैं! सीधे भारत और चीन जैसे देशों को ललकारने लगे। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों? चलिए, बिना राउंडअबाउट के सीधे मुद्दे पर आते हैं।

NATO को भारत-चीन से दिक्कत क्यों?

देखिए, बात बिल्कुल सीधी है। रूस से तेल खरीद रहे हैं हमारे देश और चीन। और जब से यूक्रेन वाला मामला शुरू हुआ है, पश्चिमी देशों ने रूस पर economic sanctions लगा रखे हैं। अब NATO चाहता है कि हम लोग रूसी तेल खरीदना बंद कर दें। मजे की बात यह कि ये ‘सुझाव’ नहीं, बल्कि खुली धमकी की तरह आया है।

क्या भारत-चीन ने NATO की बात मान ली?

अरे भई नहीं! हमारे देश की तो बात ही अलग है। सरकार ने साफ-साफ कह दिया – “हमारे national interests सबसे ऊपर”। चीन भी कहां पीछे रहने वाला? दोनों ही देशों ने NATO की इस demand को ठुकरा दिया है। और सच कहूं तो यही सही फैसला लगता है। किसी के दबाव में आकर अपने फायदे की बात छोड़ दें, ये तो नहीं होने वाला ना?

इसका असर क्या होगा अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर?

यहां बात सिर्फ तेल की नहीं रह जाती। देखा जाए तो ये तो एक तरह का टेस्ट केस बन गया है। बड़े देश जब ऐसे मुद्दों पर अड़ जाते हैं, तो पूरी दुनिया की राजनीति हिल जाती है। Tensions बढ़ेंगे, relations पर असर पड़ेगा, economy डगमगाएगी – ये सब होने वाला है। पर एक सच यह भी कि अब वो जमाना नहीं रहा जब कोई भी देश दूसरों के इशारों पर नाचे।

मोदी जी और चीन के राष्ट्रपति ने क्या कहा?

अभी तक तो कोई बड़ा official statement नहीं आया है। पर हमारे foreign ministry के अधिकारियों ने जो संकेत दिए हैं, उससे साफ है – energy security के मामले में कोई समझौता नहीं। चीन भी लगभग यही भाषा बोल रहा है। दिलचस्प बात यह कि दोनों देशों ने इस मामले में एक जैसी ही body language दिखाई है। कहने का मतलब? External pressure का कोई खास असर होता नहीं दिख रहा।

तो ये थी पूरी कहानी। अब देखना यह है कि NATO आगे क्या कदम उठाता है। पर एक बात तो तय है – ये मामला अभी और सुर्खियां बटोरेगा। क्या कहते हैं आप?

Source: Aaj Tak – Home | Secondary News Source: Pulsivic.com

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