1962 के चीन युद्ध का वो राज जिसने इतिहास बदल दिया: नेहरू ने दलाई लामा को शरण क्यों दी?
सोचिए, 1959 की वो रात… जब तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा चीन की सेना से छिपते-छिपाते भारत की सीमा में दाखिल हुए। और फिर? फिर हमारे तत्कालीन PM नेहरू ने एक ऐसा फैसला लिया जिसने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय राजनीति को हिला दिया, बल्कि 1962 के युद्ध की नींव भी रख दी। सच कहूं तो, ये फैसला उतना ही जोखिम भरा था जितना कि आग से खेलना। चीन ने इसे अपनी इज्जत पर हमला माना और सीधे सैन्य कार्रवाई पर उतर आया।
तिब्बत पर चीन का कब्जा: कहानी शुरू होती है
असल में पूरी कहानी समझनी है तो 1950 के दशक में जाना पड़ेगा। चीन ने तिब्बत पर जबरन कब्जा करके उसे “स्वायत्त क्षेत्र” का झूठा टैग दे दिया। दलाई लामा ने शांति से विरोध जताया, पर चीन का जवाब? लाठियां, गोलियां और दमन। हैरानी की बात ये कि भारत ने शुरू में “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का नारा दिया था। लेकिन 1959 में जब दलाई लामा को भागकर भारत आना पड़ा, तो नेहरू के सामने सबसे बड़ा सवाल खड़ा हो गया – मानवता या राजनीति?
वो रात जब बदल गया इतिहास
मार्च 1959 की वो रात किसी Hollywood thriller से कम नहीं थी। दलाई लामा हिमालय के खतरनाक रास्तों से भारत आए और नेहरू ने न सिर्फ शरण दी, बल्कि धर्मशाला में उनके रहने का इंतजाम भी किया। एक तरफ तो ये मानवाधिकारों की जीत थी, लेकिन चीन को ये “अनुचित हस्तक्षेप” लगा। चीनी मीडिया ने भारत को “दखलअंदाज” बताकर सीमा विवाद को और हवा दे दी। सच कहूं तो, यहीं से शुरू हुई थी वो दुश्मनी जो आज तक जारी है।
दुनिया ने क्या कहा?
इस फैसले ने भारत में भी तूफान खड़ा कर दिया। विपक्ष ने नेहरू को “कमजोर” बताया, वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने तालियां बजाईं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और यूरोप ने भारत का साथ दिया। लेकिन चीन? उसने तो सीधे सैनिक बढ़ा दिए और मैकमोहन रेखा को चुनौती देते हुए अक्साई चिन पर दावा ठोंक दिया। एकदम बेबाक। बिना किसी शर्म के।
1962 से आज तक का सफर
इस सबका सबसे दर्दनाक नतीजा 1962 का युद्ध था। भारत को भारी नुकसान उठाना पड़ा। और आज? आज भी LAC पर गलवान और डोकलाम जैसे मुद्दे इसी तनाव की देन हैं। धर्मशाला में तिब्बती शरणार्थियों की बस्तियां आज भी इस इतिहास की गवाह हैं।
सच तो ये है कि नेहरू का ये फैसला मानवता की जीत थी, भले ही राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी हो। आज भी जब भारत-चीन रिश्तों की बात होती है, ये घटना सबसे पहले याद आती है। क्या आपको नहीं लगता कि कभी-कभी सही करने का फैसला बहुत महंगा पड़ता है?
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1962 का भारत-चीन युद्ध… क्या आपने कभी सोचा कि इसके पीछे की असली वजह क्या थी? देखिए, नेहरू जी ने दलाई लामा को शरण देना तो एक बेहद इंसानी फैसला था – और सही भी था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अक्सर ऐसा होता है कि सही फैसलों के भी अनचाहे नतीजे निकल आते हैं।
सच कहूं तो, उस वक्त चीन का गुस्सा समझ आता है… पर नहीं, माफ़ नहीं किया जा सकता। यही तो है राजनीति की विडंबना – एक तरफ मानवता, दूसरी तरफ राष्ट्रीय हित। और यह टकराव आज तक हमारे रिश्तों पर भारी पड़ रहा है।
अब सोचने वाली बात ये है कि क्या हम 1962 के उन घावों से आगे निकल पाएंगे? क्योंकि सच तो ये है कि इतिहास सिर्फ अतीत नहीं होता… वो वर्तमान को भी गहराई से प्रभावित करता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे पुराने जख्मों का दर्द कभी-कभी फिर से उठ आता है।
1962 का वो युद्ध जिसने भारत-चीन रिश्तों को हमेशा के लिए बदल दिया: नेहरू, दलाई लामा और कुछ अनकहे सच!
1. असल में लड़ाई की जड़ क्या थी? सिर्फ सीमा विवाद या कुछ और?
देखिए, सतह पर तो यह Aksai Chin और Arunachal Pradesh को लेकर सीमा विवाद था। लेकिन असल मामला था Tibet! चीन ने जब Tibet पर कब्जा किया, तो यहाँ से दलाई लामा का भारत आना… बस फिर क्या था, तनाव तो होना ही था। ऐसा लगता है मानो पहले से जल रही आग में घी डाल दिया गया हो।
2. नेहरू ने दलाई लामा को शरण दी – क्या यह फैसला सही था? या फिर…
ईमानदारी से कहूँ तो, 1959 में जब दलाई लामा भागकर भारत आए, तो नेहरू के पास कोई विकल्प ही नहीं था। मानवता के नाते शरण देना तो बनता था। पर चीन को यह कहाँ पचने वाला था? उन्हें लगा कि भारत उनके ‘बैकयार्ड’ में दखल दे रहा है। और फिर… वो हुआ जो होना था।
3. नेहरू की गलतियाँ? या फिर हम सिर्फ उन्हें दोष दे रहे हैं?
एक तरफ तो “Forward Policy” को लेकर सवाल उठते हैं – क्या यह जल्दबाजी में लिया गया फैसला था? वहीं दूसरी तरफ, सच यह भी है कि उस समय हमारी सेना चीन के मुकाबले कहीं नहीं थी। कुछ experts कहते हैं नेहरू ने सेना की तैयारी को कम आँका, पर क्या सच में केवल यही कारण था? शायद नहीं।
4. क्या आज भी 1962 की छाया में जी रहे हैं हम?
सच पूछो तो… बिल्कुल! आज भी जब Doklam या Galwan Valley में तनाव होता है, तो लगता है जैसे 1962 का भूत वापस आ गया हो। चीन तो जैसे उस युद्ध को कभी भूला ही नहीं। और हम? हमारी याददाश्त भी कमजोर नहीं है। एक तरह से देखें तो यह लड़ाई आज भी जारी है, बस मैदान अलग है।
Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com