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“भारत में ट्रेड यूनियनों की ताकत: क्या वाकई कम हुआ है उनका प्रभाव? | विस्तृत विश्लेषण”

भारत में ट्रेड यूनियनों की ताकत: क्या सच में कमजोर पड़ गई हैं वो? | एक सच्ची बहस

9 जुलाई को जो हुआ, वो किसी से छुपा नहीं है। पूरे देश में ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल का ऐलान किया, और अनुमान लगाया जा रहा है कि 25 करोड़ से ज़्यादा कर्मचारी इसमें शामिल हुए। बात चल रही है नए श्रम कानूनों की, बात चल रही है बढ़ते निजीकरण की। पर असल सवाल तो ये है – क्या ट्रेड यूनियनें अब वो ताकत नहीं रहीं जो कभी हुआ करती थीं? या फिर ये हड़ताल साबित करती है कि वो अभी भी मज़दूरों के हक की लड़ाई लड़ सकती हैं?

ट्रेड यूनियनों का सफर: कहाँ से कहाँ तक?

देखिए, हमारे देश में ट्रेड यूनियनों की कहानी आज़ादी की लड़ाई से जुड़ी है। वो दौर था जब मज़दूर और उनके संगठन अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ उठाते थे। आज़ादी के बाद? वो मज़दूरों के हक की आवाज़ बने रहे। लेकिन 1991 के बाद से… कुछ बदलाव आने शुरू हो गए। निजी कंपनियों का बोलबाला बढ़ा, सरकारी नीतियाँ बदलीं, और नौजवान कर्मचारियों ने यूनियनों से दूरी बना ली। अब तो हालत ये है कि हर दूसरे श्रम कानून में बदलाव पर यूनियनें सड़कों पर आ जाती हैं। इस बार की हड़ताल भी उसी की एक कड़ी है।

हड़ताल की बारीकियाँ: क्या है पूरा मामला?

INTUC, AITUC, CITU और HMS जैसी बड़ी यूनियनें इस मुहिम में शामिल हैं। और उन्होंने क्या किया? बैंकिंग से लेकर परिवहन तक, ऊर्जा से लेकर विनिर्माण तक – हर सेक्टर के लाखों कर्मचारियों को जोड़ लिया। मांगें क्या हैं? नए श्रम कानून वापस लो, PSUs का निजीकरण बंद करो, मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे सुलझाओ। कई राज्यों में तो हालात इतने गर्म हो गए कि सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ा। सच कहूँ तो, ये कोई छोटी-मोटी हड़ताल नहीं है।

कौन क्या कह रहा है? – विभिन्न पक्षों की राय

यूनियनों का आरोप है कि सरकार मज़दूरों के हितों की अनदेखी कर रही है। उनका कहना है कि नए कानूनों से शोषण बढ़ेगा। वहीं सरकार और उद्योग जगत का तर्क है कि श्रम सुधार ज़रूरी हैं, वरना अर्थव्यवस्था पिछड़ जाएगी। और हाँ, हड़ताल से तो नुकसान ही होगा। आम जनता की राय? वो बंटी हुई है। कुछ कहते हैं यूनियनें अब वो बात नहीं रहीं, तो कुछ का मानना है कि ये हड़ताल सरकार पर दबाव बनाने का सही तरीका है। आप क्या सोचते हैं?

आगे क्या? – भविष्य की संभावनाएँ

अभी तो सरकार और यूनियनों के बीच बातचीत की गुंजाइश बनी हुई है। लेकिन अगर मांगें नहीं मानी गईं… तो स्थिति और गंभीर हो सकती है। बड़े आंदोलनों की आशंका जताई जा रही है। मूल सवाल यही है – क्या ट्रेड यूनियनें अपना खोया हुआ गौरव वापस पा सकेंगी? या फिर उनकी प्रासंगिकता और कम हो जाएगी? एक तरफ मज़दूरों के अधिकार, दूसरी तरफ आर्थिक विकास… इस संतुलन को बनाना आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

अंत में बस इतना कहूँगा – ये हड़ताल सिर्फ मांगों की बात नहीं करती। ये एक बड़ी बहस छेड़ती है। भारतीय श्रम व्यवस्था में ट्रेड यूनियनों की भूमिका पर, उनके भविष्य पर। आर्थिक सुधारों के इस दौर में हमें एक रास्ता ढूँढ़ना होगा – जहाँ मज़दूरों के हक भी सुरक्षित रहें, और देश की अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़े। कठिन है, नामुमकिन नहीं।

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भारत में ट्रेड यूनियन्स का असर – जानिए वो सब जो आपको पता होना चाहिए

1. क्या सच में ट्रेड यूनियन्स का दबदबा कम हुआ है?

सच कहूं तो हां, पिछले एक दशक में हालात बदले हैं। Globalization और privatization की मार पड़ी है, और नए labor laws ने तो जैसे unionization को ही पीछे धकेल दिया है। लेकिन यहां एक दिलचस्प बात – अभी भी कुछ sectors ऐसे हैं जहां यूनियन्स की पकड़ बहुत मजबूत है। जैसे कि… सरकारी क्षेत्र, या बड़े पैमाने वाले manufacturing units। है ना मजेदार?

2. आज के समय में यूनियन्स के लिए सबसे बड़ी मुश्किल क्या है?

असल में, देखा जाए तो दोहरी चुनौती है। पहली तो यह कि informal sector में काम करने वालों को organize करना बेहद मुश्किल है – जैसे आपके आसपास के छोटे दुकानदार या daily wage workers। दूसरी चुनौती? वो है gig economy का बढ़ता दबाव। Swiggy, Zomato, Uber जैसी कंपनियों के ड्राइवर्स को traditional तरीके से organize करना लगभग नामुमकिन सा लगता है। क्या आपको नहीं लगता?

3. नए labor codes ने क्या यूनियन्स की ताकत घटा दी है?

ईमानदारी से कहूं तो यह एक ग्रे एरिया है। एक तरफ तो experts का कहना है कि strikes पर लगी नई पाबंदियों ने unions की मुट्ठी ढीली कर दी है। लेकिन सरकार की दलील भी सुनिए – उनका कहना है कि ये सुधार workers के लिए ही तो हैं! मेरा निजी विचार? सच कहीं बीच में ही है। आप क्या सोचते हैं?

4. आगे चलकर ट्रेड यूनियन्स कैसे जिंदा रह पाएंगी?

यहां तो बिल्कुल नए तरीके अपनाने होंगे। पहली बात – technology को गले लगाना होगा। WhatsApp groups से लेकर digital payment तक। दूसरा, gig workers के लिए flexible membership models चाहिए – जैसे pay-per-use union services। और सबसे जरूरी? युवाओं को convince करना कि यूनियन्स सिर्फ पुराने जमाने की चीज नहीं हैं। कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं। क्या आप मुझसे सहमत हैं?

एक बात और – अगर आपको लगता है कि मैं कुछ मिस कर रहा हूं, तो कमेंट में जरूर बताइएगा। आखिर यह तो हम सबकी बात है ना?

Source: News18 Hindi – Nation | Secondary News Source: Pulsivic.com

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